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उम्मीदों की मुलाकात

सत्यवीर सिंह 'मुनि'
सुआवाला-बिजनौर।
16 अगस्त 2025 को अमेरिकी राज्य अलास्का के एंकोरेज शहर में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ऐतिहासिक मुलाक़ात हुई, तो पूरी दुनिया की निगाहें इस पर टिकी थीं। यह केवल दो महाशक्तियों के नेताओं की औपचारिक वार्ता नहीं थी, बल्कि पिछले तीन वर्षों से दुनिया को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे यूक्रेन युद्ध, वैश्विक प्रतिबंधों, ऊर्जा संकट और साइबर युद्ध जैसे कई मुद्दों की पृष्ठभूमि में शांति की संभावना की किरण लेकर आई थी। इस मुलाकात को उम्मीदों की मुलाकात कहना न केवल प्रतीकात्मक है, बल्कि सारगर्भित भी, क्योंकि इससे वैश्विक कूटनीति को एक नई दिशा मिलती दिख रही है।
2022 में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद अमेरिका और रूस के बीच संबंध शीतयुद्ध के समय से भी अधिक तनावपूर्ण हो गए थे। पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए कड़े आर्थिक प्रतिबंध, नाटो की पूर्वी विस्तार नीति, रूस द्वारा गैस आपूर्ति में कटौती, और साइबर प्रतिरोध की घटनाओं ने वैश्विक मंच पर एक शत्रुतापूर्ण वातावरण बना दिया था। अमेरिका ने यूक्रेन को सैन्य और आर्थिक समर्थन प्रदान करते हुए रूस को युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया, जबकि रूस ने इसे अपने भू-राजनीतिक हितों की रक्षा बताया। तीन वर्षों में लाखों लोगों की जानें गईं, यूरोप में विस्थापन और आर्थिक मंदी ने स्थिति को और विकट बना दिया। इस सबके बीच भारत, चीन, ब्राजील जैसे वैश्विक शक्ति केंद्रों ने तटस्थता की नीति अपनाई और संवाद के पक्ष में अपील जारी रखी।
अलास्का की यह बैठक किसी भी शिखर सम्मेलन की तरह केवल प्रतीकात्मक नहीं थी। मध्य अगस्त में प्रारंभ हुई यह द्विदिवसीय वार्ता कई दौरों में चली जिसमें दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने प्रत्यक्ष संवाद, गुप्तचर सूचनाओं के आदान–प्रदान, आर्थिक प्रतिबंधों में ढील, और सैन्य गतिविधियों में संयम जैसे मुद्दों पर ठोस चर्चा की। प्रारंभिक रूप से रूस ने कुछ रणनीतिक ठिकानों से पीछे हटने पर सहमति दी, वहीं अमेरिका ने यूक्रेन में सीज़फायर की रूपरेखा को समर्थन देने की बात कही। दोनों पक्षों ने यह माना कि युद्ध अब वैश्विक अर्थव्यवस्था को और अधिक नुकसान पहुँचा रहा है और इसका समाधान सैन्य नहीं बल्कि कूटनीतिक होना चाहिए। इस बैठक न्यू डिटेंट" (New Détente) की संज्ञा दी जा सकती है। 1970 के दशक में अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच संबंध सामान्य बनाने की प्रक्रिया को ‘डिटेंट’ कहा गया था। अब, तीन वर्षों के कटु संवाद और शक्ति प्रदर्शन के बाद, यह वार्ता उस डिटेंट की याद दिलाती है, जिसमें परस्पर विश्वास की पुनर्स्थापना को प्राथमिकता दी जा रही है।
अगली प्रस्तावित बैठक मास्को में रखी गई है, जिसे "शांति और स्थायित्व शिखर सम्मेलन" कहा जा रहा है। यदि यह बैठक सफल रहती है, तो न केवल यूक्रेन युद्ध का अंत समीप आएगा, बल्कि अमेरिका-रूस संबंधों में स्थायित्व, विश्वास और सहयोग की भावना का उदय भी होगा। इस बैठक से रूस युक्रेन युद्धविराम की संभावना की तात्कालिक राहत नहीं दीख रहीं है लेकिन भविष्य में एक उम्मीद अवश्य बनी है।
अलास्का बैठक का भारत पर प्रभाव:-
भारत की कूटनीति हमेशा संतुलित और रणनीतिक रही है। यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने किसी पक्ष का खुला समर्थन नहीं किया, अपितु निरंतर युद्धविराम, संवाद और शांति की वकालत करता रहा। रूस और अमेरिका दोनों के साथ घनिष्ठ संबंधों के चलते भारत की स्थिति अत्यंत संवेदनशील थी। अलास्का बैठक से भारत को निम्नलिखित लाभ और प्रभाव प्राप्त हो सकते हैं:
1. ऊर्जा सुरक्षा में सुधार:-
रूस भारत को तेल एवं गैस का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता है। युद्ध और प्रतिबंधों के चलते वैश्विक ऊर्जा बाजार अस्थिर हो गया था। यदि तनाव कम होता है, तो भारत को ऊर्जा आपूर्ति में स्थायित्व मिलेगा, जिससे घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।
2. वैश्विक कूटनीति में भारत की स्वीकार्यता:-
भारत का संतुलित रुख और तटस्थता उसे भविष्य में मध्यस्थता के लिए एक उपयुक्त विकल्प बना सकती है। यदि अमेरिका और रूस दोनों उसकी भूमिका को स्वीकार करते हैं, तो भारत की वैश्विक साख में वृद्धि होगी।
3. डिफेंस और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर पर असर:-
भारत की रक्षा आपूर्ति में रूस एक प्रमुख भागीदार है, जबकि टेक्नोलॉजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में अमेरिका से सहयोग बढ़ता जा रहा है। दोनों देशों से संबंध सुधरने का मतलब है कि भारत को तकनीकी और रक्षा क्षेत्रों में ज्यादा सहयोग मिल सकता है।
वैश्विक कूटनीति पर वार्ता का महत्व:-
पुतिन और डोनाल्ड ट्रंप की यह वार्ता केवल द्विपक्षीय नहीं बल्कि बहुपक्षीय प्रभावों से युक्त है। यूरोपीय देशों को अब राहत की संभावना है क्योंकि युद्ध के कारण ऊर्जा संकट और आर्थिक मंदी से वे जूझ रहे थे। रूस का एकमात्र प्रमुख साझेदार बन चुके चीन की रणनीति पर इस वार्ता का बड़ा असर पड़ेगा। यदि रूस अमेरिका के साथ निकटता बढ़ाता है तो चीन को अपनी स्थिति पुनर्विचार करनी होगी।
मध्य एशिया और अफ्रीका क्षेत्रों में अमेरिका और रूस की गतिविधियाँ अब अधिक संयमित होंगी जिससे स्थायित्व की उम्मीद की जा सकती है।
अगस्त की यह बैठक ‘उम्मीदों की मुलाकात’ के रूप में इतिहास में दर्ज हो सकती है, यदि आने वाले महीनों में इसे व्यावहारिक रूप दिया जाए। विश्व जनमत अब युद्ध से थक चुका है, और महाशक्तियां भी यह समझने लगी हैं कि 21वीं सदी की चुनौतियां जलवायु संकट, साइबर सुरक्षा, जैविक युद्ध, खाद्यान्न असुरक्षा, केवल सहयोग से ही हल होंगी। इसलिए, अलास्का की यह बैठक केवल वर्तमान संकट का समाधान नहीं, बल्कि भविष्य की कूटनीति की दिशा में एक कदम और संकेत है, जहाँ संवाद, सहमति और शांति ही दीर्घकालिक विकल्प हैं। भारत नई व्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

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