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'वृक्ष पुनरारोपण नीति'


वाकई हरियाली बचाओ या सरकार का सिर्फ इमेज मेकओवर

केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में पेड़ बचाने के उद्देश्य से पिछले हफ्ते ‘वृक्ष प्रत्यारोपण नीति' यानी ट्री ट्रांसप्लांटेशन पालिसी का ऐलान किया। ट्री ट्रांसप्लांट या प्रत्यारोपण का अर्थ है कि किसी भी पेड़ को काटने के बजाय उसे जड़ समेत मशीनों द्वारा उखाड़ कर किसी दूसरी जगह लगाया जाए।

दिल्ली सरकार ने जिस वृक्ष प्रत्यारोपण नीति को मंजूरी दी है वह प्रयोग मुंबई जैसे शहरों में पहले ही नाकाम हो चुका है। सवाल उठता है हरियाली बचाने की यह नीति क्या सरकार का सिर्फ इमेज मेकओवर भर है? पर्यावरणविदों के मुताबिक दिल्ली में केजरीवाल सरकार यह करना चाहती है तो उसे वैज्ञानिक तरीकों और रिसर्च के साथ आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल करना होगा। इससे 70 प्रतिशत तक पेड़ बच सकते हैं, लेकिन इसमें काफी पैसा खर्च होगा। हर एक पेड़ को ट्रांसप्लांट करने में कम से कम 50 हजार से 1 लाख का खर्च होगा।

सरकार द्वारा पेड़ों को बचाने का विचार बहुत अच्छा है, लेकिन यह नीति कितनी कारगर होगी यह जानने के लिए हमें पहले ट्रांसप्लांटेशन किए गए पेड़ों का अध्ययन करना जरूरी है। बहुत जरूरी ये भी है कि यह प्राथमिकता तय करे कि पेड़ों को बचाने के लिए जो पैसा खर्च होगा वह कहां से आयेगा? साथ ही यह जानना जरूरी होगा जो पैसा और श्रम हम पेड़ों के पुनरारोपण में खर्च करेंगे उसके मुताबिक परिणाम कुछ नहीं मिलेगा या नहीं।

ज्ञात हो मुंबई में मेट्रो रेल लाइन बिछाने के लिए जिन पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया गया उनमें से ज्यादातर पेड़ नहीं बचे। खुद मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने अदालत में माना है कि साल 2019 में प्रत्यारोपित किए गए 1,500 पेड़ों में से करीब 64 प्रतिशत नहीं बच पाए। हालांकि वहां के पर्यावरण कार्यकर्ताओ के अनुसार आंकड़ा कहीं अधिक भयावह है। मुंबई मेट्रो के लिए अब तक कुल करीब 4,000 पेड़ निकाल कर ट्रांसप्लांट किए गए लेकिन उनमें से 3,500 मर गए।

अदालत ने भी पिछले साल मुंबई मेट्रो रेल कॉरेपोरेशन के अधिकारियों को बेहतर ट्रांसप्लांट तकनीक और जानकारों को इस्तेमाल न करने के लिए फटकार लगाई थी। वो शुक्र है ठाकरे सरकार ने समय रहते मुंबई की प्राणवायु कहे जाने वाले आरे वन को उजाड़े जाने से बचा लिया और मेट्रो शेड के लिए अलग से कहीं जगह तलाशने की बात कही. देखना दिलचस्प होगा कि ठाकरे सरकार मुंबई में आरे की जगह जमीन कहाँ मुहैया कराती है।

वैसे तो पेड़ों की पुनरारोपण तकनीक उम्दा मशीनों के साथ आई मगर हर जलवायु और हर उम्र के पेड़ पर इसे लागू नहीं किया जा सकता. वृक्ष प्रत्यारोपण की कल्पना नितांत शहरी सोच है और सबसे पहले यह ऑस्ट्रेलिया से आई. संभवतः ये ऑस्ट्रेलिया में बड़े बड़े माइनिंग प्रोजेक्ट्स की वजह से प्रचलित हुआ होगा. फिर यह शब्द दुनिया के कई देशों में गया। वहीं यूरोप में यह तकनीकी फेल साबित हुई तो भारत में कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान यह प्रयोग पूरी तरह असफल रहा।

पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक ट्री ट्रांसप्लांट केवल 10-15 साल उम्र के नन्हें और युवा पेड़ों का ही हो सकता है. माना अमेरिका और सिंगापुर जैसे देशों ने इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल की है मगर यह प्रयोग केवल भारी खर्च और उम्दा टेक्नोलॉजी से किया जा सकता है। क्या भारत जिसकी जीडीपी माइनस चौबीस पंहुच गयी हो वह यह खर्च बर्दाश्त कर पायेगा?

पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने का केजरीवाल सरकार का यह विचार ही बताता है कि पालिसी मेकर्स को पर्यावरण की सही समझ नहीं है। ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में तो पेड़ों को इस तरह प्रत्यारोपित नहीं किया जा सकता जैसे सरकार बता रही है। सरकार 80% पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने और उनमें से 80% पेड़ों के बचने की बात कर रही है लेकिन सबसे पहले यह समझना होगा कि दिल्ली में ज्यादातर पेड़ काफी पुराने हैं जिनकी उम्र सौ साल से अधिक है। ऐसे पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने के लिए आप उन्हें कैसे निकालेंगे जिनकी जड़ें काफी फैली हों? फिर तो आपको उनकी विशाल शाखाओं को काटना होगा। उसके बाद आप इन पेड़ों को ले जाकर कहीं लगायेंगे तो क्या वह बचेंगे?”

ऊष्ण-कटिबंधीय जलवायु में उगने वाले पेड़ काफी संवेदनशील होते हैं. ट्रांसप्लांट जैसी तकनीक 10 या 15 साल पुराने पेड़ों पर तो कारगर हो सकती है लेकिन आपको बहुत पुराने पेड़ों पर इसे नहीं आजमाना चाहिए क्योंकि वो पेड़ नई जगह पर बचेंगे ही नहीं। क्या आप दिल्ली में नीम और जामुन जैसे पुरातन दरख्तों को उखाड़ कर कहीं बो सकते हैं?

ट्रांसप्लांटेशन को लेकर पहले कोई स्टडी नहीं की गई है और जहां तक हमें मालूम है यह प्रयोग अब तक कामयाब नहीं हुआ है। वहीं अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन की कोख से आयी दिल्ली सरकार की यह जल्दबाजी भी गौरतलब है। बगैर माकूल पड़ताल, खस्ताहाल खजाने पर यह भारी-भरकम बोझ डालना समझदारी भरा कदम नहीं। इमेज बनाने के लिए केवल अंदाज पर देश का पैसा लुटा देना इमानदारी से कर चुकाए टैक्सपेयरों के साथ धोखा है।

रविशंकर पाठक
सोशल मीडिया एक्टिविस्ट
वाराणसी।


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