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मंगलसूत्र

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लोक सभा हेतु हो रहे चुनाव का पहला चरण बीत चुका है। पहले चरण के इस चुनाव के बाद इंडी गठबंधन और एनडीए के नेता गण अपनी अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। यह सबकुछ तो चुनाव नतीजा आने के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा परन्तु दावों प्रतिदावों के डगमगाते आत्मविश्वास के बीच सबसे बड़ा परिवर्तन एनडीए गठबंधन और उसके सर्वमान्य नेता के प्रचार की मुहिम में देखा जाने लगा है।

बताते चलें कि वर्तमान चुनावी रणभूमि में आते ही एनडीए और विशेषकर प्रधानमंत्री श्री मोदी के द्वारा "अबकी बार, चार सौ पार" का आह्वान बड़े आत्मविश्वास के साथ किया जाता रहा है। दिलचस्प रूप से यह नारा बीच समरभूमि से गायब कर दिया गया है और प्रथम चरण के चुनाव संपन्न होते ही अब एनडीए के सबसे बड़े घटक दल के द्वारा "अबकी बार मोदी सरकार" का नारा फिर से देखने सुनने को मिल रहा है। सवाल यह कि प्रथम चरण के मतदान के बाद आखिरकार ऐसा क्या हो गया कि "चार सौ पार" का आत्मविश्वास भरभराकर गिर गया और भाजपा पुनः वर्ष 2014 के नारे पर उतरने को मजबूर होकर रह गई?

क्या इसे भाजपा की मजबूरी नहीं माना जाए कि फर्स्ट फेज के मतदान के बाद अब अपने संकल्प पत्र पर चर्चा को दरकिनार करते हुए इसके स्टार प्रचारक श्री मोदी के द्वारा विपक्षी दलों के घोषणा पत्र को मुद्दा बनाया जा रहा है। ऐसा तब जबकि वर्ष 2014 से श्री मोदी "सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास" का नारा बुलंद करते नजर आते रहे हैं। आज श्री मोदी का यह विश्वास डगमगाने लगा है और विपक्ष के घोषणा पत्र की आड़ में वे "सबका साथ सबका विकास" की व्याख्या हिन्दू महिलाओं का मंगलसूत्र छीनकर उन्हें मुसलमानों के बीच बांटने संबंधी भय दिखाने में करने लगे हैं।

उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक पद होता है। यही वजह है कि देश के प्रधानमंत्री के लिए आम जनों से संयमित भाषा के प्रयोग की अपेक्षा की जाती है। इसी तरह आम लोगों को भी यह अपेक्षा रहती है उसका प्रधानमंत्री भाषा व शब्दों के चयन के प्रति संवेदनशीलता का परिचय देने वाला हो। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री के पद पर बैठा कोई व्यक्ति अपने दल के संकल्प पत्र की व्याख्या के बजाए "हिंदू-मुसलमान" जैसे विभाजनकारी वक्तव्यों से लोगों का समर्थन जुटाने का प्रयास करता नजर आए तो क्या यह उसके गिरते आत्मविश्वास का विषय नहीं माना जाएगा? क्या अब विकसित राष्ट्र का हमारा सपना "मंगलसूत्र" के दानों में से बनने वाले "विजयसूत्र" की बुनियाद पर पूरा होगा? ऐसे तमाम सवालों के बीच देश में आज अचानक से यही सबकुछ देखने सुनने को मिल रहा है जिसकी अपेक्षा छप्पन इंच दावों से नहीं की जा सकती। ऐसा भी तब देखने सुनने को मिल रहा है जब अभी तो महज एक दौर का ही चुनाव संपन्न हुआ है। सवाल यह भी कि क्या हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री इतने कमजोर हैं कि सिर्फ एक दौर के चुनाव में पिछड़ जाने के भय से भाजपा या एनडीए के संभावित कार्यक्रमों के स्थान पर कांग्रेस के घोषणा पत्र के छिद्रान्वेषण में लगे हुए नजर आने लगें?

यह बात सही हो सकता है कि मनमोहन सिंह ने कभी "देश के संसाधनों पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों का पहला हक" संबंधी वक्तव्य दिया था। आज इस वक्तव्य के नतीजे से हर कोई अवगत है। साथ में पूरी दुनिया को यह मालूम है कि श्री सिंह का तथाकथित वक्तव्य उनके गिरे हुए मनोबल का परिणाम था और इस गिरे हुए आत्मविश्वास के कारण आए परिणाम ने अंततः कांग्रेस को इतिहास के अतीत में लाकर खड़ा कर दिया।

उल्लेखनीय है कि अभी तो कई दौर में चुनाव होने हैं और प्रथम चरण से अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। यह भी सही है कि प्रथम चरण में जिन लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में चुनाव हुए हैं उनमें भारतीय जनता पार्टी का स्ट्राइक रेट पहले से ही कम रहा है। दूसरी तरफ इन क्षेत्रों में मतदान के गिरे हुए प्रतिशत भी इस बात के संकेत दे रहे हैं कि यहाँ भाजपा की स्थिति अपेक्षाकृत खराब रहने वाली है। ऐसे में सवाल यह कि क्या इन एक सौ दो चुनाव क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन के मिल रहे संकेतों से भाजपा आलाकमान का आत्मविश्वास डगमगा चुका है और उन्हें इस बात का डर सताने लगा है कि पहले ही चरण में उनके "चार सौ पार" की बत्ती गुल हो चुकी है?

"प्रथम ग्रासे मक्षिपातः" की स्थिति को किसी भी संगठन के लिए निसंदेह हीन मनःस्थिति का संकेत माना जाता है और शायद यही वह कारण है कि प्रथम चरण के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा नीचले स्तर की भाषा का उपयोग किया जा रहा हो। वस्तुतः इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी एक मंजे हुए राजनेता हैं। उन्हें यह अच्छी तरह से यह मालूम है कि गुड गवर्नेंस में कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद बाजपेयी सरकार की वापसी संभव नहीं हो पाई थी और कार्यकर्ताओं के अति आत्मविश्वास के कारण तत्कालीन "साईनिंग इंडिया" का हाल बेहाल होकर रह गया था। भाजपा एक काडर वाली पार्टी है और कार्यकर्ताओं की सक्रियता के बगैर न "चार सौ पार" का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है और न "अबकी बार" की घोषणा की जा सकती है।

ऐसे में यह संभव है कि एक मंजा हुआ राजनेता अपने कार्यकर्ताओं के अति आत्मविश्वास को संयमित करने के उद्देश्य से वह सबकुछ कर रहा हो जिसकी अपेक्षा श्री मोदी जैसी शख्सियत से नहीं की जाती। बहरहाल यह सबकुछ अभी भविष्य की कोख में छुपा हुआ है और अंतिम नतीजे को लेकर भी बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु हाँ, यह दावा तो किया ही जा सकता है कि इस चुनाव अभियान के प्रथम चरण के समाप्त होते ही अब एक ऐसी अवधारणा को हवा मिलने लगी है जिसके अंतर्गत हमारे प्रधानमंत्री की चुनावी भाषा अबतक के सबसे निचले स्तर पर जा पहुंचा है। ©केदार

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