एक ग़ज़ल ग़ौर फ़रमाएं
ऐ मुसाफ़िर बता क्या है वो दास्ताँ
क्या हुआ क्यों भटकता है दर-दर यहाँ
उसका कुछ भी नहीं अब बचा है यहाँ
इस क़दर है जला उठ रहा है धुआँ
जिससे उम्मीद थी वो दग़ा कर गया
उसने जलता हुआ छोड़ा मेरा मकाँ
अब किसी से यहाँ इश्क़ होगा नहीं
अपने लफ़्ज़ों से मैं करता हूँ ये बयाँ
लौट कर आएगा गर मुझे ढूँढता
मेरी मय्यत उसे फिर मिलेगी यहाँ
भर गया इस जहाँ से ये तन-मन मेरा
मैं बनाऊँगा अपना नया आसमाँ
Read Less