
एक पक्ष की सहिष्णुता, दूसरे की जिद, क्या यह संविधान सम्मत है?
भारत की असली पहचान उसकी विविधता और बहुलतावादी परंपरा में निहित है, और उस विविधता को संतुलित रखने का कार्य करता है, हमारा संविधान। लेकिन जब यही संतुलन एक पक्ष की निरंतर सहिष्णुता और दूसरे की ज़िद व आक्रोश में उलझने लगे, तब यह लोकतंत्र की स्थिरता के लिए एक गहरी चेतावनी बन जाता है।
हिंदू समाज की सहिष्णुता कोई नई बात नहीं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से सिद्ध एक वास्तविकता है।
राम मंदिर जैसे प्रकरणों में सात दशकों तक शांतिपूर्वक कानूनी प्रक्रिया का पालन, पूजा स्थल अधिनियम 1991 को स्वीकृति, और वर्तमान में भी कई धार्मिक स्थलों पर शांतिपूर्वक न्याय की प्रतीक्षा, यह सभी उदाहरण बताते हैं कि बहुसंख्यक समाज ने हमेशा कानून को सर्वोच्च माना।
इसके विपरीत, वक़्फ़ अधिनियम के अंतर्गत मुस्लिम समुदाय के कुछ समूहों की प्रतिक्रियाएं इस संतुलन को अस्थिर करती दिखती हैं।
अनेक वक़्फ़ संपत्तियों पर बिना पर्याप्त दस्तावेज़ दावे किए जाते हैं, और जब इन पर आपत्ति या जांच की बात आती है, तो विरोध अक्सर कानूनी नहीं, बल्कि भावनात्मक और आक्रोशपूर्ण हो जाता है। ‘इस्लाम खतरे में है’ जैसे नारों से लेकर सार्वजनिक प्रदर्शन तक, यह रुझान दर्शाता है कि कुछ वर्ग अब भी संविधान की बजाय धार्मिक भावनाओं को प्राथमिकता देने की चेष्टा करते हैं।
यह प्रश्न अब केवल धार्मिक स्थलों तक सीमित नहीं है, यह भारतीय संविधान की सार्वभौमिकता और संप्रभुता से जुड़ा एक मूलभूत सवाल बन चुका है।
क्या कोई भी धर्म संविधान से ऊपर हो सकता है?
क्या धार्मिक भावनाएं कानून की अवहेलना का आधार बन सकती हैं?
जब एक बड़ा वर्ग न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास करता है, तो सभी समुदायों से यही अपेक्षा क्यों न की जाए?
भारत की सबसे बड़ी शक्ति उसका सांप्रदायिक सह-अस्तित्व है। लेकिन जब एक पक्ष संविधान के दायरे में रहता है और दूसरा लगातार उसका अतिक्रमण करता है, तब यह सह-अस्तित्व असंतुलित हो जाता है।
समाधान?
सभी धर्मों के लिए समान नियम — समान नागरिक संहिता (UCC)।
धार्मिक संगठनों को यह स्पष्ट रूप से समझाना कि धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा केवल संविधान की मर्यादाओं में ही संभव है।
संविधान सर्वोपरि है और रहेगा।
भारत की असली विजय धर्म की नहीं, लोकतंत्र की होगी और यही उसे विश्वगुरु बनाएगा।