
न्यायपालिका का अतिक्रमण: कार्यपालिका की स्वतंत्रता पर कुठाराघात
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में तीनों अंगों, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, को स्वतंत्र और संतुलित भूमिका निभाने के लिए परिकल्पित किया गया है। परंतु विगत वर्षों में न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के कार्यों में लगातार और बढ़ते हस्तक्षेप ने न केवल शक्ति संतुलन के सिद्धांत को ध्वस्त किया है, बल्कि कार्यपालिका की वैधानिक और प्रशासनिक क्षमता पर भी सीधा प्रहार किया है। यह प्रवृत्ति न केवल असंवैधानिक है, बल्कि लोकतंत्र की मूल आत्मा के भी विपरीत है।
कार्यपालिका को देश की नीतियाँ तय करने, योजनाओं को क्रियान्वित करने, और प्रशासनिक निर्णय लेने का दायित्व प्राप्त है। इसमें समयबद्धता, संसाधन प्रबंधन, और ज़मीनी हकीकतों की समझ आवश्यक होती है। जब न्यायपालिका, जो निर्णय मुख्यतः कानूनी बिंदुओं और नैतिक आग्रहों के आधार पर लेती है, इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करती है, तो वह अक्सर प्रशासनिक यथार्थ से कटे हुए निर्णय देती है। उदाहरण स्वरूप, न्यायपालिका द्वारा पर्यावरणीय या सामाजिक विषयों पर तात्कालिक भावनाओं से प्रभावित होकर दिए गए निर्णय, कई बार विकास परियोजनाओं को ठप कर देते हैं, बिना दीर्घकालिक प्रभावों का मूल्यांकन किए।
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका को निर्देश देना कि किस योजना में कितने दिन में क्या हो, यह न केवल नीति-निर्माण की प्रक्रिया में घातक हस्तक्षेप है, बल्कि इससे प्रशासनिक ढांचा भी जड़ और भयभीत हो जाता है। अधिकारी नीतिगत साहस नहीं दिखा पाते, निर्णय लेने में हिचकिचाते हैं और कार्यपालिका निर्णय-क्षम संस्था के बजाय न्यायपालिका की मोहताज बनकर रह जाती है।
उल्लेखनीय है कि न्यायपालिका स्वयं भी अनेक बार भ्रष्टाचार, लंबित मामलों की अधिकता, और पारदर्शिता की कमी जैसे गंभीर प्रश्नों से घिरी रही है। ऐसे में यह अपेक्षा करना कि वही संस्था कार्यपालिका की भूमिका भी निभाए, व्यावहारिक और न्यायिक दोनों दृष्टिकोणों से अनुचित है।
तीखे शब्दों में कहें तो न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र में बार-बार की गई घुसपैठ ‘संवैधानिक तख्तापलट’ जैसी है, जो लोकतंत्र के संतुलन को बिगाड़ती है। यह प्रवृत्ति न रोकी गई तो शासन प्रणाली अराजकता की ओर अग्रसर हो सकती है, जहाँ न कोई नीति स्थिर रह पाएगी और न ही प्रशासनिक प्रक्रिया प्रभावी।
अतः आवश्यक है कि न्यायपालिका अपनी मर्यादा में रहे, कार्यपालिका को उसके क्षेत्र में निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता और विश्वास दे, और केवल तभी हस्तक्षेप करे जब स्पष्ट रूप से संविधान का उल्लंघन हुआ हो। अन्यथा, लोकतंत्र का ताना-बाना एकपक्षीय शक्ति-संचय से तार-तार हो जाएगा।