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गाजीपुर में पत्रकारिता का पतन: लोकतंत्र के प्रहरी का लुप्त होता आत्मबल

गाजीपुर, उत्तर प्रदेश का एक ऐतिहासिक जिला, जहाँ की धरती ने स्वतंत्रता सेनानियों, शिक्षकों और साहित्यकारों को जन्म दिया, आज वहाँ पत्रकारिता—जो कभी समाज का आईना थी—अपने ही वजूद की तलाश में भटकती नज़र आ रही है। पत्रकारिता, जो कभी निष्ठा, साहस और सत्य का पर्याय मानी जाती थी, आज बाजारवाद, राजनीतिक संलग्नता और निजी स्वार्थों की गिरफ्त में सिसक रही है।

पत्रकारिता: मिशन से व्यवसाय की ओर

पत्रकारिता की परंपरा किसी तात्कालिक सूचना सेवा से बहुत ऊपर थी। यह समाज का विवेक थी, एक नैतिक प्रहरी थी। लेकिन आज के दौर में गाजीपुर सहित देश के कई हिस्सों में यह 'प्रोफेशन' से भी आगे निकलकर 'कारोबार' बनती जा रही है। जहाँ पहले पत्रकार जमीनी हकीकतों की खोज करते थे, आज अधिकांश ‘पत्रकार’ अपनी कलम को ताकतवर लोगों की इच्छानुसार घुमा देते हैं।

जिस पत्रकार की कलम समाज के पक्ष में उठती थी, अब वह ‘पेड न्यूज’ की परिभाषा में सिमटती जा रही है। आज पत्रकारिता का केंद्र जनहित नहीं, बल्कि ‘हिट्स’, ‘व्यूज़’ और ‘स्पॉन्सरशिप’ बनता जा रहा है।

गाजीपुर की पत्रकारिता: एक स्थानीय परिप्रेक्ष्य

गाजीपुर जैसे जिले में जहाँ सूचनाओं के आदान-प्रदान का बड़ा हिस्सा अब सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स से होता है, वहाँ पत्रकारिता की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश, यहाँ कई 'पत्रकार' महज़ प्रेस कार्ड या यूट्यूब चैनल बना लेने को पत्रकारिता समझ बैठे हैं।

ग्राउंड रिपोर्टिंग, तथ्य की जांच, और निष्पक्ष विश्लेषण अब अपवाद बन गए हैं। स्थानीय स्तर पर कई पत्रकार सत्ता-समर्थित एजेंडा चलाते हैं, या फिर भय और लालच के बीच झूलते हुए खुद को पत्रकारिता के नाम पर व्यापार में संलग्न कर लेते हैं।

पत्रकारिता के पतन के प्रमुख कारण

1.राजनीतिक और आर्थिक दबावों का प्रभाव:
आज पत्रकारिता स्वतंत्र नहीं रही। बहुत सारे पत्रकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी न किसी राजनीतिक दल, नेता, या ठेकेदार से जुड़े होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि न तो वे खुलकर सवाल पूछ सकते हैं, न ही जनहित में सच्चाई लिखने की हिम्मत जुटा पाते हैं।

2.विज्ञापन और स्पॉन्सरशिप की भूख:
अब खबरें नहीं बिकतीं, बिकता है “कंटेंट”—वो भी ऐसा, जो विज्ञापनदाताओं को खुश कर दे। ऐसी परिस्थितियों में ज़मीनी मुद्दे—जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, किसान, मज़दूर—हाशिए पर चले जाते हैं और 'मनोरंजक खबरों' को तरजीह दी जाती है।

3.ट्रेनिंग और पेशेवर कौशल की कमी:
आज भी गाजीपुर जैसे जिलों में पत्रकारिता को लेकर कोई सुव्यवस्थित प्रशिक्षण या संस्थान नहीं है। अधिकांश नवागत पत्रकार बिना किसी वैचारिक समझ या एथिक्स के इस क्षेत्र में आते हैं। नतीजा ये होता है कि वे खबरों को मनोरंजन, अफवाह या प्रचार का माध्यम बना बैठते हैं।

4.डिजिटल मीडिया का अनियंत्रित विस्तार:
डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स पर पत्रकारिता के नाम पर कुछ भी और किसी भी तरीके से प्रचारित किया जा रहा है। फेक न्यूज़, अर्ध-सत्य और सनसनीखेज हेडलाइंस ने समाज की मानसिकता को भ्रमित और बंटा हुआ बना दिया है।

समाज पर असर: विश्वास का विघटन

गाजीपुर की जनता अब पहले जैसी भरोसा नहीं करती। लोग कहते हैं कि अब खबरें देखकर नहीं, समझकर पढ़नी पड़ती हैं। और यही पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा खतरा है—जब पाठक पत्रकार पर विश्वास करना बंद कर दे।

क्या हैं समाधान के रास्ते?

1.स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा मिले:
ऐसे पत्रकार और संस्थान जो बिना किसी दबाव के जनहित में कार्य कर रहे हैं, उन्हें समाज और सरकार से संरक्षण और सहयोग मिलना चाहिए।

2.प्रशिक्षण और पत्रकारिता की नैतिक शिक्षा:
पत्रकारिता में आने वाले युवाओं को पत्रकारिता की मूल आत्मा, उसकी गरिमा और उसके सामाजिक उत्तरदायित्वों की गहरी समझ दी जानी चाहिए।

3.नागरिक जागरूकता:
समाज को भी अब यह समझना होगा कि पत्रकारिता केवल पत्रकारों की जिम्मेदारी नहीं है। जब समाज जागरूक होगा, तब पत्रकार भी जवाबदेह बनेंगे।


4.प्रेस परिषद या स्वतंत्र निगरानी निकाय:
स्थानीय स्तर पर एक ऐसी संस्था होनी चाहिए जो पत्रकारों की निष्पक्षता और जवाबदेही पर नजर रखे, ताकि पत्रकारिता का स्तर बेहतर हो सके।

निष्कर्ष: उम्मीद अब भी बाकी है

हालात कितने भी चुनौतीपूर्ण क्यों न हों, पत्रकारिता का भविष्य पूरी तरह अंधकारमय नहीं है। आज भी गाजीपुर में कुछ ऐसे पत्रकार हैं, जो जोखिम उठाकर सच्चाई सामने लाते हैं, जो जनहित की बात करते हैं, और जिनकी कलम अब भी ईमानदारी से चलती है।

ऐसे पत्रकार ही आशा की किरण हैं। और समाज का कर्तव्य है कि वह इन सच्चे पत्रकारों के साथ खड़ा हो, ताकि पत्रकारिता की लौ फिर से जल उठे—एक बार फिर वह वही प्रहरी बन सके, जो लोकतंत्र की रक्षा के लिए खड़ा हो।

विवेकानंद राय, पत्रकार, गाज़ीपुर
सदस्य: आल इंडिया मीडिया एसोसिएशन

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