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जब बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से होए…


आज देश में नफ़रत का जो बीज बोया जा रहा है, वह अब हर दिशा में अपना ज़हर फैलाने लगा है। भाजपा सरकार ने जिस तरह से देश में नफ़रत की राजनीति को हवा दी है, उसका असर अब हमारे समाज के हर पहलू में दिखाई देने लगा है। लोग अब केवल धर्म या जाति के नाम पर ही नहीं, बल्कि भाषा, पहनावे, खान-पान और यहाँ तक कि त्योहारों के नाम पर भी एक-दूसरे से नफ़रत करने लगे हैं।

कल रात जब मैं झारखंड से पश्चिम बंगाल आ रहा था, तो रास्ते में एक बोर्ड देखा — उस पर हिंदी में लिखी पंक्ति को किसी ने जानबूझकर काले रंग से पोत दिया था, जैसे हिंदी भाषा से ही उन्हें नफ़रत हो। यह देखकर दिल भारी हो गया और दिमाग सोचने पर मजबूर कि आख़िर भारत में रहकर कोई भारत की ही भाषा से इतनी नफ़रत क्यों करता है?

फिर मेरा ध्यान भाजपा के उन नेताओं की तरफ़ गया जो खुद ही भाषाई और धार्मिक नफ़रत फैलाने में लगे रहते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक जिस तरह से भारत की एक और सुंदर भाषा उर्दू को तिरस्कृत करते हैं, वह दर्शाता है कि ये नफ़रत केवल संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी नीति का हिस्सा है।

जब नफ़रत बोई जाएगी, तो प्यार की फ़सल कैसे उगेगी? बचपन में एक कहावत सुनी थी — “जब बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से होए…” — यही आज देश की हक़ीक़त बन चुकी है।

अब समय आ गया है कि हम सभी मिलकर सोचें, समझें और इस नफ़रत के ज़हर को फैलने से रोकें। देश की एकता, इसकी विविधता में है — और हर भाषा, हर संस्कृति, हर इंसान की इसमें बराबरी की जगह है।

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