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ब्राह्मण: राजनीति की बिसात पर घिरा एक प्राचीन प्रतीक” उमापति मिश्र

भारतीय समाज में ब्राह्मण की पहचान सदियों पुरानी है — एक समय का ज्ञानमार्गी, शांति व अध्ययन में रत वर्ग, जो वेद, धर्म और शिक्षा का मार्गदर्शक रहा। परंतु आधुनिक भारत में यह वर्ग न तो उतना आदरणीय रहा और न ही निष्कलंक — अब यह राजनीतिक ध्रुवीकरण और प्रचार का औजार बन गया है।
हाल ही में एक फिल्म निर्देशक द्वारा सोशल मीडिया पर दिया गया अपमानजनक वक्तव्य — “मैं ब्राह्मणों पर पेशाब करूँगा…” — न केवल असभ्यता की सीमा लांघ गया, बल्कि यह स्पष्ट संकेत भी है कि ब्राह्मण अब भी राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्श में एक संवेदनशील बिंदु बना हुआ है। विरोध हुआ, मुकदमे दर्ज हुए, और फिर सामने आई एक संकोचभरी माफ़ी — जिसमें आत्मग्लानि कम और सार्वजनिक दबाव अधिक था।
यह घटना केवल एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति नहीं थी, यह उस “selective outrage” का उदाहरण थी जहाँ सामाजिक न्याय के नाम पर एक वर्ग विशेष को गाली देना स्वतंत्रता माना जाता है, पर वैसी ही टिप्पणी किसी अन्य वर्ग पर की जाती, तो बवाल अलग होता।
राजनीति ने ब्राह्मण को कभी नेतृत्वकर्ता के रूप में सराहा, और कभी उसे “सवर्ण अत्याचार” का प्रतीक बनाकर समाज में खलनायक जैसा चित्रित किया। कभी आरक्षण के खिलाफ खड़ा कर दिया गया, कभी ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का चेहरा बना दिया गया। लेकिन सच यही है — आज ब्राह्मण वर्ग न सत्ता के केंद्र में है, न ही वह संगठित दबाव समूह बन सका है।
राजनीतिक दलों के लिए ब्राह्मण अब “कभी-कभार याद किया जाने वाला वोट बैंक” बन गया है — सम्मेलन करवा दो, दो-चार संस्कृत श्लोक बोल दो, और फिर अगले चुनाव तक भूल जाओ।

पर प्रश्न यह है: क्या एक प्राचीन और वैचारिक रूप से समृद्ध पहचान को सिर्फ जातिगत ताने, अपमान और वोटों के खेल तक सीमित कर देना ही “नए भारत” की परिभाषा है?

ब्राह्मण होना अपराध नहीं है, और न ही विशेषाधिकार का प्रतीक। यह एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व है — जो ज्ञान, संतुलन और विवेक की माँग करता है।

आज ज़रूरत है कि हम जाति के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने वाली मानसिकता को चुनौती दें, और उस भारत की ओर बढ़ें जहाँ व्यक्ति की पहचान उसकी सोच से हो — न कि उसके नाम, गोत्र या वर्ण से।

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