
पहलगाम हमले के बाद सवालों के घेरे में सरकार: देशभक्ति के नाम पर जवाबदेही से भागना कब तक? देश की सुरक्षा सिर्फ नारों से नहीं, बल्कि ठोस नीतियों और ज़िम्मेदारी से सुनिश्चित होती है..
नई दिल्ली (राहुल चन्द्र) : जहां एक ओर राष्ट्रभक्ति की बातें मंचों से गूंजती रहती हैं, वहीं कड़वी सच्चाई यह है कि देश की सुरक्षा सिर्फ नारों से नहीं, बल्कि ठोस नीतियों और ज़िम्मेदारी से सुनिश्चित होती है। पहलगाम में हुए हालिया आतंकी हमले ने एक बार फिर इस सच्चाई को उजागर कर दिया है।
हमले में कई बेगुनाहों की जान गई, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग शामिल थे। यह हमला न सिर्फ एक इंटेलिजेंस फेलियर का प्रतीक है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासन ने इतनी बड़ी चूक कैसे होने दी।
सरकार से अब ये सवाल पूछना लाज़िमी है:
जब खुफिया एजेंसियों को लगातार सक्षम और सतर्क बताया जाता है, तो ऐसी गंभीर इंटेलिजेंस विफलता कैसे हुई? क्या इसे सिर्फ चूक माना जाए या ये लापरवाही थी?
क्या यही वह कश्मीर नहीं है, जिसके बारे में सरकार ने बार-बार दावा किया कि आतंकवाद का अंत हो चुका है? तो फिर यह हमला कैसे संभव हुआ?
अगर आतंकवादियों का निशाना केवल एक धर्म के लोग होते, तो सईद हुसैन शाह को क्यों मारा गया? क्या यह हमला धर्म से परे एक सुनियोजित हिंसा प्रतीत होती है?
जब घटनास्थल पर दो हजार से ज़्यादा पर्यटकों मौजूद थे, तो क्या यह प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं थी कि वहां पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था होती? उस वक़्त सुरक्षाकर्मी क्यों नहीं था?
सबसे अहम—गृह मंत्री हर बार बड़ी घटनाओं पर नाकाम क्यों साबित हो रहे हैं? क्या उनका काम केवल भाषण देना रह गया है? उनकी ज़िम्मेदारी कब तय की जाएगी?
देशभक्ति का सही अर्थ सवाल पूछना और जवाबदेही तय करना है।
सिर्फ नारे लगाने से न सुरक्षा सुनिश्चित होती है, न ही शहीदों को इंसाफ़ मिलता है।
सरकार क्या इन सवालों के जवाब देगी या फिर एक और ‘आख्यान’ में सच्चाई को ढंकने की कोशिश होगी?