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आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक मोड़ पर भारत

पहलगाम हमले के बाद मोदी सरकार का सख्त संदेश—अब मूकदर्शक नहीं रहेगा देश

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर पूरे देश को झकझोर दिया। इस हमले में हमारे जवानों और निर्दोष नागरिकों की शहादत ने देश की अंतरात्मा को कुरेद कर रख दिया। यह घटना एक बार फिर बताती है कि आतंकवाद की समस्या केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता और संप्रभुता से जुड़ी चुनौती है। इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सेना को 'निर्णायक कार्रवाई' की खुली छूट देना एक साहसिक, स्पष्ट और दीर्घकालिक नीति की घोषणा है।

भारत लंबे समय से आतंकवाद का शिकार रहा है—चाहे वह 2001 का संसद हमला हो, 2008 का मुंबई हमला या 2019 का पुलवामा हमला। इन घटनाओं ने यह सिद्ध किया है कि आतंकवाद की रणनीति अब पारंपरिक युद्ध से अधिक खतरनाक हो चुकी है—जहाँ दुश्मन न सीमाओं में बंधा होता है, न पहचान में। पहले जहां भारत की नीति प्रतिक्रियात्मक होती थी, अब उसमें आक्रामकता और स्पष्टता आई है। 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 की एयर स्ट्राइक इसका उदाहरण हैं। और अब पहलगाम के बाद लिया गया निर्णय इस नीति को और ठोस बनाता है।

सेना को मिली स्वतंत्रता: कार्रवाई का नया विस्तार

सेना को दी गई "खुली छूट" सिर्फ एक रणनीतिक आदेश नहीं है, यह उस मानसिकता का प्रतिबिंब है, जहाँ अब भारत अपनी सुरक्षा के लिए किसी की स्वीकृति या समर्थन की प्रतीक्षा नहीं करेगा। सैन्य बलों को अब जवाब देने के बजाय पहले से सटीक हमला करने की रणनीतिक स्वतंत्रता है। यह भारतीय सेना की क्षमता और तकनीकी सुसज्जन पर विश्वास का प्रतीक भी है।

हालांकि, इस स्वतंत्रता के साथ ज़िम्मेदारी और जवाबदेही भी जुड़ी है। यह अत्यंत आवश्यक होगा कि कार्रवाई केवल ठोस खुफिया जानकारी के आधार पर हो, नागरिक क्षति से बचा जाए, और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन हो। यही भारत की नैतिक बढ़त को बनाए रखेगा।

खुफिया एजेंसियों की भूमिका और समन्वय की ज़रूरत : आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई केवल हथियारों से नहीं, सूचनाओं और समन्वय से भी लड़ी जाती है। आज की परिस्थितियों में, समय पर और सटीक खुफिया जानकारी किसी भी ऑपरेशन की सफलता की कुंजी है। इसमें R&AW, IB, NIA और सेना की इंटेलिजेंस शाखाओं का बेहतर तालमेल आवश्यक है।

आतंकी फंडिंग, ऑनलाइन कट्टरपंथ, और सीमापार भर्ती जैसे नेटवर्क को तोड़ना अब प्राथमिकता होनी चाहिए। यह लड़ाई अब केवल गोली से नहीं, डेटा और डिजिटल निगरानी से भी जीती जाएगी।

कूटनीतिक संदेश और वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति : जब भारत आतंकियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करता है, तो यह केवल अपने लिए नहीं, बल्कि वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ एक सैद्धांतिक मोर्चा भी होता है। भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह बात स्पष्ट करनी होगी कि उसकी नीति न तो विस्तारवादी है, न प्रतिशोधात्मक—बल्कि यह आत्मरक्षा और क्षेत्रीय शांति बनाए रखने की दिशा में एक नैतिक उत्तरदायित्व है।

इसके लिए संयुक्त राष्ट्र, G-20, BRICS और अन्य मंचों पर संवाद और समर्थन जुटाना आवश्यक होगा। साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भारत की छवि एक लोकतांत्रिक, संवेदनशील और उत्तरदायी राष्ट्र के रूप में बनी रहे।

जनता, मीडिया और समाज की भूमिका : आतंकवाद के विरुद्ध कोई भी लड़ाई केवल सीमा पर नहीं लड़ी जाती—वह हर नागरिक के मन में लड़ी जाती है। ऐसे समय में अफवाहों, गलत सूचनाओं और सामाजिक ध्रुवीकरण से बचना बेहद आवश्यक है। मीडिया को भी अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभानी होगी—उत्तेजना फैलाने के बजाय तथ्य और संवेदनशीलता पर ज़ोर देना होगा।

जनता की जागरूकता, सुरक्षा बलों के प्रति सहयोग, और समाज में सौहार्द बनाए रखना—ये तीनों पहलू इस संघर्ष में भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन सकते हैं।

निर्णायकता के साथ संतुलन की आवश्यकता : आज भारत जिस मोड़ पर खड़ा है, वहाँ केवल ताकत दिखाना पर्याप्त नहीं—उस ताकत का विवेकपूर्ण प्रयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। पहलगाम हमले के बाद सरकार ने जो स्पष्ट रुख अपनाया है, वह सराहनीय है। लेकिन इस नीति को सफल बनाने के लिए पारदर्शिता, संयम और समन्वय को प्राथमिकता देनी होगी।

यदि यह रणनीति दृढ़ता के साथ संवेदनशीलता, और सुरक्षा के साथ उत्तरदायित्व के संतुलन में लागू की गई, तो यह न केवल भारत को सुरक्षित बनाएगी, बल्कि दक्षिण एशिया में आतंकवाद के खिलाफ एक नया प्रतिमान स्थापित करेगी।

भारत अब मूकदर्शक नहीं है—यह संदेश स्पष्ट है। अब जरूरत है एक ऐसी राष्ट्रीय एकजुटता की, जो आतंकवाद की हर साजिश को उसी की भाषा में जवाब दे सके—लेकिन भारतीय मूल्यों और संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा करते हुए।

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