
पेगासस पर पर्दा: राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम नागरिक स्वतंत्रता
सुप्रीम कोर्ट द्वारा पेगासस रिपोर्ट को सार्वजनिक न करने का निर्णय भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विचारोत्तेजक क्षण है। यह फैसला सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि उस गहराते टकराव का प्रतीक है जो राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक स्वतंत्रताओं के बीच आज की दुनिया में दिखाई देता है।
पेगासस स्पायवेयर विवाद तब सामने आया जब 2021 में एक अंतरराष्ट्रीय जांच ने दावा किया कि भारत समेत कई देशों में पत्रकारों, राजनेताओं, कार्यकर्ताओं और यहां तक कि न्यायाधीशों की जासूसी की गई। यह जासूसी कथित रूप से पेगासस नामक स्पायवेयर के ज़रिए हुई, जिसे इज़राइली कंपनी NSO ग्रुप ने बनाया है। भारत सरकार ने इस तरह के सभी आरोपों को नकारा, इसे एक "राजनीतिक साजिश" बताया और कहा कि किसी भी प्रकार की अवैध निगरानी नहीं की गई।
इस विवाद को लेकर विपक्ष, खासकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे लोकतंत्र और निजता पर हमला करार दिया। उन्होंने बार-बार यह मांग की कि सरकार और न्यायपालिका जनता के सामने सच रखे। इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने एक स्वतंत्र तकनीकी समिति गठित की, जिसने जांच कर यह कहा कि जिन 29 फोन की जांच की गई, उनमें से 5 में संदिग्ध मालवेयर था, लेकिन यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह पेगासस था।
हालांकि, न्यायालय ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि वह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाएगी, क्योंकि यह देश की सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा मामला है। अदालत ने सरकार का पक्ष लेते हुए कहा कि यदि सरकार देश-विरोधी तत्वों पर निगरानी रख रही है, तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
लेकिन यह सवाल अब भी बना हुआ है: क्या सरकार को किसी भी निगरानी की कार्रवाई को पूर्ण रूप से गोपनीय रखने का अधिकार है, भले ही वह लोकतांत्रिक संस्थानों और नागरिकों के अधिकारों से टकराए? यह तर्क कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर सब कुछ स्वीकार्य है, भविष्य में दमनकारी नीतियों को भी वैध बना सकता है। एक पारदर्शी लोकतंत्र में यह आवश्यक है कि राज्य अपने नागरिकों के प्रति जवाबदेह हो। निगरानी के दायरे और सीमा को तय करने के लिए एक स्पष्ट, सार्वजनिक नीति होनी चाहिए।
इस निर्णय से राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं को अवश्य झटका लगा है, जिन्होंने पेगासस को सरकार के खिलाफ जनभावना उभारने का एक प्रमुख मुद्दा बनाया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यह मुद्दा अब समाप्त हो गया है। पेगासस अब केवल एक तकनीकी बहस नहीं, बल्कि उस व्यापक विमर्श का हिस्सा बन चुका है जिसमें यह तय होगा कि भारत का लोकतंत्र कितना पारदर्शी, कितना उत्तरदायी और कितना संवेदनशील रहेगा।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट का फैसला हमें यह सोचने को विवश करता है कि जब भी सुरक्षा और स्वतंत्रता के बीच टकराव होता है, तो लोकतंत्र की असली परीक्षा वहीं होती है।