पोंग डैम....विस्थापित....
पोंग डैम विस्थापित: आधे सदी की अनसुनी पीड़ा
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में ब्यास नदी पर बना पोंग डैम, जिसे महाराणा प्रताप सागर के नाम से भी जाना जाता है, एक इंजीनियरिंग का चमत्कार है। 1975 में पूरा हुआ यह बाँध देश का सबसे ऊँचा मिट्टी से बना बाँध है, जो सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए बनाया गया था। इसने राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों को हरा-भरा करने में अहम भूमिका निभाई, लेकिन इस विकास की चमक के पीछे एक दर्दनाक कहानी छिपी है—लाखों विस्थापितों की कहानी, जिनका जीवन इस बाँध के जलाशय में डूब गया और जिनकी पुकार आज भी अनसुनी है।विस्थापन की त्रासदी1961 में जब पोंग डैम का निर्माण शुरू हुआ, तब कांगड़ा के 339 गाँवों के करीब 1.5 लाख लोग प्रभावित हुए। इनमें से 20,722 परिवारों को उनके घर, खेत, और समुदाय छोड़कर विस्थापित होना पड़ा। इन परिवारों की 75,268 एकड़ जमीन जलाशय में समा गई, जो मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के आधे क्षेत्रफल के बराबर है। इन लोगों को राजस्थान के जयपुर, गंगानगर, और बीकानेर जैसे इलाकों में पुनर्वास का वादा किया गया, क्योंकि पोंग डैम का पानी इंदिरा गांधी नहर के जरिए इन रेगिस्तानी क्षेत्रों को सिंचित करने वाला था। लेकिन यह वादा आज, पाँच दशकों बाद भी, अधूरा है।विस्थापित , अपनी कहानी सुनाते हुए कहते हैं, “हमारा गाँव बारी, फतेहपुर में था। हमारे खेत, हमारा घर—सब पानी में डूब गया। हमें राजस्थान में जमीन का वादा किया गया, लेकिन आज तक कुछ नहीं मिला। हमारी जिंदगी अधर में लटकी है।” उनकी आवाज में सिर्फ गुस्सा नहीं, बल्कि एक गहरी निराशा है, जो पीढ़ियों तक चली आ रही है।पुनर्वास का अधूरा सपना1970 में हिमाचल प्रदेश और राजस्थान सरकारों के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत 16,352 परिवारों को राजस्थान में सिंचित जमीन दी जानी थी। लेकिन 2024 तक, 6,736 परिवार अभी भी पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। कुछ परिवारों को जो जमीन दी गई, वह रेगिस्तान की रेतीली और बंजर भूमि थी, जहाँ न पानी था, न बिजली, न सड़कें। कई विस्थापितों ने बताया कि स्थानीय लोगों ने उन्हें डराया और उनकी जमीन छीन ली। कुछ ने मजबूरी में अपनी जमीन बेच दी, क्योंकि हिमाचल के पहाड़ी लोग राजस्थान की भीषण गर्मी और कठिन परिस्थितियों में जी नहीं पाए। एक अन्य विस्थापित, कहते हैं, “हमें दो एकड़ जमीन के लिए 3,000 रुपये मिले, लेकिन जमीन आज तक नहीं मिली। हमने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन न्याय मिलना दूर की कौड़ी है।” उनकी कहानी उन हजारों परिवारों की तरह है, जिन्हें न तो पर्याप्त मुआवजा मिला, न ही पुनर्वास की सुविधाएँ।नौकरशाही और उदासीनता का जालपोंग डैम विस्थापितों की समस्या का मूल कारण खराब नियोजन, नौकरशाही की लालफीताशाही, और सरकारों की उदासीनता है। 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति गठित की थी, जो पुनर्वास प्रक्रिया को तेज करने वाली थी। लेकिन समिति की बैठकें अनियमित रहीं, और राजस्थान सरकार ने शिकायत निवारण मंच को ठप कर दिया। हाल ही में, 2024 में हिमाचल प्रदेश के राजस्व मंत्री जगत सिंह नेगी ने कहा कि वे विस्थापितों के लिए हर संभव मदद करेंगे, और राजस्थान के अधिकारियों के साथ नियमित बैठकें होंगी। लेकिन ये वादे पहले भी सुने जा चुके हैं, और विस्थापितों का भरोसा टूट चुका है।अब विस्थापितों को गुस्सा नही आता बल्कि दर्द है और कहते है, “हमारी पीढ़ी तो बर्बाद हो गई, लेकिन हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी यही दर्द झेलें। सरकार को अब ठोस कदम उठाने होंगे।” उनकी बात में एक गहरी सच्चाई है—विस्थापन की यह त्रासदी अब दूसरी और तीसरी पीढ़ी तक पहुँच चुकी है।पुनर्वास की चुनौतियाँहाल ही में, दिसंबर 2024 में, एक संयुक्त निरीक्षण समिति ने राजस्थान के जैसलमेर जिले के पाँच तहसीलों में प्रस्तावित पुनर्वास भूमि का दौरा किया। उनकी 74 पेज की रिपोर्ट ने कई गंभीर समस्याएँ उजागर कीं:बंजर और रेतीली जमीन: अधिकांश जमीन रेतीली और अकृषिय है, जिसमें पारंपरिक खेती असंभव है।सीमा के पास स्थान: कई चक (जमीन के टुकड़े) भारत-पाकिस्तान सीमा के पास हैं, जहाँ सुरक्षा कारणों से खेती मुश्किल है।बुनियादी सुविधाओं की कमी: नजदीकी प्राथमिक स्कूल 7-25 किमी, अस्पताल 23-43 किमी, और पानी की डिग्गी 3-25 किमी दूर हैं। पीने का पानी, स्वच्छता, और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं हैं।भूमि माफिया: विस्थापितों की जमीन पर स्थानीय माफियाओं और अतिक्रमणकारियों का कब्जा है।ये समस्याएँ विस्थापितों के लिए नया जीवन शुरू करने को और कठिन बनाती हैं। एक विस्थापित, कहते हैं, “हमने विकास के लिए अपनी जमीन दी, लेकिन हमें बदले में सिर्फ़ वादे और दुख मिला। क्या हमारा बलिदान कोई मायने नहीं रखता?”पर्यावरण और सामाजिक प्रभावपोंग डैम ने न केवल लोगों को विस्थापित किया, बल्कि पर्यावरण और सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित किया। जलाशय ने कांगड़ा की उपजाऊ भूमि को डुबो दिया, और विस्थापित समुदायों का सामाजिक ढाँचा टूट गया। हाल ही में, पोंग डैम वन्यजीव अभयारण्य के आसपास इको-सेंसिटिव जोन (ESZ) बनाने का प्रस्ताव आया है, जिससे विस्थापितों को फिर से प्रभावित होने का डर है। स्थानीय पंचायतों और विधायक होशियार सिंह ने इसका विरोध किया है, क्योंकि इससे खेती और विकास कार्य और जटिल हो जाएँगे।आगे की राहपोंग डैम विस्थापितों की कहानी सिर्फ़ एक बाँध की कहानी नहीं, बल्कि विकास की कीमत और मानवीय संवेदनशीलता की अनदेखी की कहानी है।
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बचे हुए 6,736 परिवारों एक मार्मिक अपीलपोंग डैम के विस्थापित आज भी अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि विकास का मतलब सिर्फ़ बाँध, नहरें, और बिजली नहीं, बल्कि उन लोगों का सम्मान भी है, जिन्होंने इसके लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। क्या हमारा समाज और सरकार इन विस्थापितों को वह सम्मान और न्याय दे पाएंगे, जिसके वे हकदार हैं? यह सवाल सिर्फ़ पोंग डैम तक सीमित नहीं, बल्कि हर उस विकास परियोजना से जुड़ा है, जो इंसानियत को भूल जाती है।
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