
“प्रतिशत की परछाई में दबता बचपन: क्या यह शिक्षा का सही रास्ता है?”
हर साल जब बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे आते हैं, तो स्कूल, सामाजिक संगठन और समुदाय एक नई दौड़ में लग जाते हैं—
“95% से अधिक अंक लाने वाले छात्रों को सम्मानित किया जाएगा।”
“90% से ऊपर वालों के लिए विशेष समारोह होगा।”
और फिर ऐसे संदेश सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर वायरल होने लगते हैं।
यह पहल देखने में सराहनीय लगती है — मेधावी विद्यार्थियों को सम्मान देना एक सकारात्मक परंपरा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या अब शिक्षा का मूल्यांकन केवल अंकों तक सीमित रह गया है? क्या जो छात्र 89%, 75% या 60% लाते हैं, वे किसी सम्मान के योग्य नहीं हैं?
कुछ दशक पहले शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं था। यह समझ, जीवन मूल्यों और व्यवहार निर्माण का माध्यम था। हम 35–40% अंक लाकर भी आत्मविश्वासी रहते थे क्योंकि हमारे माता-पिता को हमारी ईमानदार मेहनत पर विश्वास था।
लेकिन आज?
हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ नंबर ही नाम बन गया है, और प्रतिशत ही पहचान। इस मानसिकता का सीधा असर बच्चों की सोच, आत्मबल और भावनात्मक संतुलन पर पड़ रहा है। WHO और NCRB के अनुसार भारत में हर घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है। वर्ष 2023 में ही 13,000 से अधिक छात्रों ने परीक्षा संबंधी तनाव और असफलता के डर से अपनी जान गंवाई।
ये आंकड़े केवल संख्या नहीं हैं — यह उस असहनीय दबाव की तस्वीर है जो हमने अपने बच्चों पर डाल दी है।
तो अब प्रश्न यह उठता है:
क्या हम सच में एक शिक्षित समाज बना रहे हैं — या सिर्फ टॉपर्स की दौड़ में एक खोखली व्यवस्था खड़ी कर रहे हैं?
जब स्कूल और संस्थान केवल उच्च अंक लाने वालों को मंच पर लाते हैं, तो अन्य बच्चों के मन में यह प्रश्न घर कर जाता है — क्या मेरी मेहनत, मेरी प्रतिभा और मेरी पहचान का कोई मूल्य नहीं?
अब समय है सोच बदलने का —
• हमें ऐसी संस्कृति बनानी होगी जहाँ केवल अंक नहीं, बल्कि समग्र व्यक्तित्व के आधार पर बच्चों को प्रोत्साहन मिले।
• पढ़ाई के साथ-साथ संस्कार, रचनात्मकता, सेवा-भावना और सामाजिक जिम्मेदारी को भी मान्यता दी जाए।
• माता-पिता बच्चों की तुलना दूसरों से न कर, उनकी क्षमता और रुचियों को पहचानें।
• समाज को प्रतिशत की होड़ से ऊपर उठकर हर बच्चे को साथ लेकर चलना होगा।
शिक्षा एक यात्रा होनी चाहिए — प्रतियोगिता नहीं।
यह प्रेरणा का स्रोत हो — दबाव का नहीं।
सम्मान की नींव हो — चयन की नहीं।
अगर हम सच में एक समझदार, संवेदनशील और सशक्त समाज की कल्पना करते हैं, तो अब समय आ गया है कि हम संख्या नहीं, संकल्प के पीछे चलें।