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एट्रोसिटी एक्ट: मानव विरोधी प्रावधान और नीतिगत टकराव...

भारत में SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम (एट्रोसिटी एक्ट) के प्रावधानों को मानव विरोधी ठहराने और नीति निर्माताओं के दोहरे मापदंड पर सवाल उठाने पर केंद्रित है।

▪️ भारत एक राष्ट्र है, लेकिन इसकी नीतियों में एक गहरा टकराव दिखता है। SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, जिसे आमतौर पर एट्रोसिटी एक्ट कहा जाता है, अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों को अत्याचार से बचाने के लिए 1989 में बनाया गया था। इसका उद्देश्य सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना था, लेकिन इसके कुछ प्रावधान – जैसे बिना जांच के गिरफ्तारी और अग्रिम जमानत का अभाव – गैर-SC/ST लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं। यह लेख इन्हीं प्रावधानों को मानव विरोधी ठहराते हुए नीति निर्माताओं के दोहरे मापदंड पर सवाल उठाता है, जो सेना और सिविल क्षेत्र में अलग-अलग नीतियाँ अपनाते हैं, और इससे सामाजिक शांति पर पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करता है।

▪️प्रकृति और मानवता का सिद्धांत
प्रकृति में सभी मनुष्य समान हैं – जैसे श्वास लेना और छोड़ना सभी के लिए एक समान है। मानवता का मूल सिद्धांत भी यही है कि सभी को समान रूप से देखा जाए, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, या वर्ग से हों। लेकिन एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधान इस सिद्धांत को कमजोर करते हैं। 2018 के संशोधन के बाद, इस एक्ट में बिना जांच के गिरफ्तारी को अनिवार्य कर दिया गया और अग्रिम जमानत का प्रावधान हटा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि झूठे मामलों में निर्दोष लोग फंसने लगे। सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च 2018 को स्वीकार किया था कि इस एक्ट का दुरुपयोग होता है, और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2022 के आँकड़ों के अनुसार, SC/ST एक्ट के तहत दर्ज मामलों में से 25% से अधिक मामले कोर्ट में साबित नहीं हो पाए। यह दुरुपयोग गैर-SC/ST लोगों को सामाजिक, आर्थिक, और भावनात्मक कष्ट पहुँचाता है, जो मानवता के सिद्धांत के खिलाफ है।

▪️नीतिगत टकराव: सेना बनाम सिविल क्षेत्र
भारत की नीतियों में एक स्पष्ट टकराव देखा जा सकता है। सेना में एट्रोसिटी एक्ट जैसे प्रावधान लागू नहीं हैं, क्योंकि नीति निर्माता समझते हैं कि बिना जांच के गिरफ्तारी जैसे प्रावधान सैनिकों के मनोबल, एकता, और कार्यक्षमता को नुकसान पहुँचाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2022 को कहा था कि सेना को सिविल सिद्धांतों पर नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि यह एक सजातीय इकाई है, जहाँ मेरिट और एकजुटता सर्वोपरि है। सेना में सभी सैनिकों को समान माना जाता है, और यहाँ जाति-आधारित भेदभाव की कोई जगह नहीं है।
लेकिन सिविल क्षेत्र में यही प्रावधान लागू हैं, जो गैर-SC/ST लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 6 अप्रैल 2025 को फिर से बिना जांच के गिरफ्तारी के दुरुपयोग पर चिंता जताई और अर्नेश कुमार मामले (2014) के दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन करने का आदेश दिया, जिसमें कहा गया है कि अनावश्यक गिरफ्तारी मानवाधिकारों का हनन है। अगर यह प्रावधान सेना में हानिकारक है, तो सिविल क्षेत्र में भी हानिकारक होना चाहिए, क्योंकि दोनों जगह मनुष्य ही हैं। यह नीतिगत टकराव एक दोहरा मापदंड दर्शाता है – नीति निर्माता सेना में इसे अयोग्य मानते हैं, लेकिन सिविल क्षेत्र में योग्य। यह कौन सा पैमाना है?

▪️ शांति पर प्रभाव
इस टकराव का सामाजिक शांति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सिविल क्षेत्र में एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधान गैर-SC/ST लोगों में अविश्वास और तनाव पैदा करते हैं। जब निर्दोष लोग झूठे मामलों में फंसते हैं, तो उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा, नौकरी, और पारिवारिक जीवन प्रभावित होता है। इससे सामाजिक एकता टूटती है, जो शांति के लिए जरूरी है। दूसरी ओर, सेना में इन प्रावधानों को लागू न करके नीति निर्माता स्वीकार करते हैं कि ये प्रावधान हानिकारक हैं। लेकिन सिविल क्षेत्र में इन्हें लागू रखना सामाजिक तनाव को और बढ़ाता है। जब एक वर्ग को लगता है कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है, तो शांति स्थापित करना असंभव हो जाता है।

▪️ आरक्षण से तुलना
आरक्षण एक सकारात्मक भेदभाव है, जो वंचित समुदायों को शिक्षा और नौकरी में अवसर देता है, और किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता। लेकिन एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधान (जैसे बिना जांच के गिरफ्तारी) सीधे तौर पर गैर-SC/ST लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं। सेना में आरक्षण न होना एक सोचा-समझा निर्णय है, क्योंकि यह मेरिट और एकता को प्राथमिकता देता है। लेकिन सिविल क्षेत्र में एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधानों को लागू रखना नीतिगत भूल है, जो भेदभाव और तनाव को बढ़ाता है।

▪️मानव विरोधी प्रावधान
एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधान मानव विरोधी हैं, क्योंकि वे मानवता के सिद्धांत – सभी मनुष्य समान हैं – के खिलाफ हैं। ये प्रावधान सिविल क्षेत्र में भेदभाव करते हैं, निर्दोष लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं, और सामाजिक एकता को कमजोर करते हैं। नीति निर्माताओं का दोहरा मापदंड इसकी पुष्टि करता है – अगर ये प्रावधान सेना में हानिकारक हैं, तो सिविल क्षेत्र में भी हानिकारक होने चाहिए। लेकिन इन्हें सिविल क्षेत्र में लागू रखना एक नीतिगत असंगति है, जो मानवता के मूल मूल्यों – न्याय, करुणा, और समानता – के खिलाफ है।

▪️निष्कर्ष और सुझाव
भारत एक राष्ट्र है, और इसकी नीतियों में एकरूपता होनी चाहिए। एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधानों में संशोधन की जरूरत है – जांच को अनिवार्य करना, झूठे मामलों के लिए सख्त सजा का प्रावधान करना, और अग्रिम जमानत का विकल्प देना चाहिए। सामाजिक न्याय और समानता के बीच संतुलन बनाना होगा, ताकि किसी भी वर्ग को कष्ट न पहुँचे। नीति निर्माताओं को अपने दोहरे मापदंड पर विचार करना होगा, क्योंकि यह टकराव सामाजिक शांति को बाधित करता है। एक सच्ची मानव प्रेमी नीति वही होगी जो सभी मनुष्यों को समान रूप से देखे और किसी को जानबूझकर कष्ट न पहुँचाए।

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