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पर्यावरण संरक्षण: सबका उतरदायित्व़. . पर्यावरण दिवस पर विशेष. ....विक्रम वर्मा

पर्यावरण संरक्षण: वर्तमान समय का सबसे महत्वपूर्ण उतरदायित्व़!
पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष.
पृथ्वी पर मानव जीवन का अस्तित्व ,प्रकृति के संतुलन और सामंजस्य के बिना अधूरा और अकल्पनीय है। प्रकृति ने मानव और अन्य जीव जंतुओं के अस्तित्व के लिए पूरी व्यवस्था की है जो अन्य किसी भी ग्रह पर नहीं है।प्रकृति ने संपूर्ण प्राणी जगत के लिये मूलभुत सुविधाओं की सहजता से व्यवस्था की है जो समस्त प्राणी जगत के लिये आवश्यक और अनमोल है. वर्तमान समय में खतरनाक ढंग से बढ़ता हुआ तापमान और प्रकृति में अत्यधिक असंतुलन आने वाले समय में भयंकर परिणाम सामने लाएगा इसमें कोई संदेह नहीं है.
पर्यावरण या प्रकृति का संरक्षण हमारे शास्त्रों में भी उल्लिखित है और प्रकृति की सारी कार्यप्रणाली मानव व्यवहार और क्रियाकलापों पर निर्भर करती है। मानव ही प्रकृति का दोहन और उपयोग करता है,और मानव का ही दायित्व है कि वह प्रकृति संरक्षण के अपने दायित्व को निभाए अन्यथा आने वाली पीढ़ियां शुद्ध वायु, शुद्ध जल और शुद्ध आहार के लिए तरस जाएंगी।
भगवद्गीता में स्पष्ट उल्लेख है:
"अन्नाद्भवंति भूतानि पर्जन्योअन्नसंभव.
यज्ञात्भवंतिपर्जन्यो यज्ञकर्मसमुद्भव"(अध्याय3, श्लोक 14)
अर्थात संपूर्ण प्राणी जगत अन्न से उत्पन्न होता है,अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से उत्पन्न होती है और यज्ञ सत्कर्मों से उत्पन्न होता है।कहा जा सकता है कि मनुष्य के कर्म स्पष्ट रूप से प्रकृति को प्रभावित करते हैं।वर्तमान समय में मनुष्य के प्राकृतिक पर्यावरण के विरूद्ध किए जा रहे कृत्य स्पष्ट रुप से वर्तमान हालातों के लिए उतरदायी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है!
पिछले कई वर्षोंं से मौसम में आए अचानक बदलाव से असमय वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन की समस्याओं ने मानव जाति को चिंतित कर दिया है क्योंकि यह सारी घटनाएं मानव अस्तित्व और मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधनों के लिए भयंकर चुनौती खड़ी कर रहे हैं. क्योंकि प्रकृति पर ही मानव मात्र का अस्तित्व संभव है और मानव मात्र का यह उतरदायित्व़ भी है कि प्रकृति का संरक्षण करने के साथ साथ भविष्य के लिये सहेजने का कार्य भी करे.
अचरज की बात यह है कि वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था और कार्यकारी वयवस्था इस गंभीर चुनौती के प्रति संवेदनहीन और भावशून्य हैं क्योंकि वयवस्था से संबंधित लोगों के लिए इस चुनौती के गंभीर परिणामों से कोई सरोकार नहीं है क्योंकि उनके पास सुख सुविधाओं और वातानुकूलित कक्षों की बेहतर सुविधाओं की कोई कमी नहीं है।
अगर बात करें कानूनी प्रावधानों की तो भारत के संविधान में देश की और राज्य की सरकारों का पर्यावरण संरक्षण के लिए दायित्व सुनिश्चित करने की व्यवस्था है। परंतु आधुनिकता और विकास के नाम पर हो रहा प्राकृतिक पर्यावरण से खिलवाड़ इसके लिए सबसे बड़ा कारण है। जिसकी भरपाई करना अत्यंत आवश्यक है. अधिकांशत यह देखा जाता है कि भूस्खलन की समस्यांए उन क्षेत्रों में अधिक घटित होती हैं जहां पर विकास के नाम पर पहाड़ों को काटा जा रहा है और उत्पन्न अवशेषों और मलबे का उचित और निर्धारित स्थान पर निपटारा नहीं किया जाता. परिणामस्वरुप तेज वर्षा के कारण वर्षाजल के तेज वहाव के साथ भारी मात्रा में गाद,चट्टानें और मिट्टी केढेर होकर बड़ी तबाही का सबब बन रहे हैं जिससे गंभीर समस्या उत्पन्न हो रही है ऊपर से पेड़ों से विहीन होते ऐसे क्षेत्र भारी भूस्खलन को रोकने में असमर्थ साबित हो रहे हैं.
कहने को तो पर्यावरण संरक्षण अधिनियम और हरित प्राधिकरण, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नामक संस्थाओं के भी उतर दायित्व सुनिश्चित हैं, परंतु यह मात्र कुछ लोगों को कुर्सी प्रदान करने के अलावा कहीं भी कारगर साबित नहीं हो रहें हैं। इन संस्थाओं के धरातल पर उतरदायित्व़ सुनिश्चित करके व्यवहारिक परिणाम प्राप्ति के लक्ष्य निर्धारित किए जाने अत्यंत आवश्यक है.
विकास के नाम पर वनों का विनाश, सड़क निर्माण और अन्य कल कारखानों के निर्माण, औद्योगिक क्षेत्रों के विस्तार के लिए प्राकृतिक वन संपदा, पहाड़ों का सीना चीरकर निर्माण कार्यों को प्राथमिकता इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, जो कि भावी पीढ़ियों के लिए जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए अत्यंत गंभीर चुनौती देता है।
दशकों से पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिए वैश्विक स्तर पर अनेकों नीतियों के गठन और कार्यान्वयन की कागजी बातें हो रहीं हैं, परंतु धरातल पर शून्य हैं।
वनसंपदा जो हमारे जीवन के अस्तित्व के लिए जीवनदायिनी प्राणवायु का एकमात्र स्रोत हैं, उसका विघटन गंभीर चिंता का विषय है। और वनों का घटता विस्तार वायुमंडल में उत्सर्जित हानिकारक गैसों के अतिरिक्त बोझ को सहने में असमर्थ साबित हो रहा है। जिससे हरे पत्ते भी पीलापन लिए हुए असहाय प्रतीत होते दिख रहें हैं। वर्तमान समय में कई महीनों तक वर्षा का नामोनिशान न होना प्राकृतिक असंतुलन का जीता जागता उदाहरण है, जो कि मानव स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिए भयंकर परिणाम ला सकता है।
अगर हम इस चुनौती को समय रहते नहीं समझ पाए तो आने वाले समय में इसके भयंकर परिणाम सामने आंएगे इसमें कोई संदेह नहीं, सरकारी वयवस्था और प्रशाशनिक वयवस्था के उतर दायित्व सुनिश्चित करने और उनके धरातल पर परिणाम परिलक्षित करने की वयवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। यूं त़ो संपूर्ण विश्व में हर वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है, परंतु क्या इसके धरातल पर परिणाम परिलक्षित हो रहे हैं यह विचारणीय विषय है आज के दिन इस गंभीर विषय पर मनन करके व्यवहारिक कार्यनीति को महत्व देना होगा. बड़े भौतिक विकास के नाम पर बड़े पर नष्ट हो रही वन संपदा का आकलन करने के साथ ही उससे कई गुना अधिक पौधारोपण सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए । स्वयंसेवी संस्थाएं और समाजसेवी संगठन इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, उनके योगदान को प्रेरित किया जाना चाहिए.
पर्यावरण और वन विभाग को वनसंपदा की अधिकाधिक विस्तार के लिए विशेष कार्यनीति बनाने और उसके लिए ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए, अन्यथा विकास और आधुनिकता के नाम पर आने वाले समय में एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है, जिसमें भौतिक विकास तो दिखाई देगा परंतु मानव जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए मूलभूत सुविधाओं अर्थात शुद्ध वायु , जल और स्वच्छ वातावरण दुर्लभ प्रतीत होंगे, वर्तमान परिस्थितियों को देखकर इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
आज पर्यावरण दिवस पर उपरोक्त सभी तथ्यों पर गंभीरता से विचार करके जन जन तक जागरूकता अभियान और संवेदनशीलता की भावना को महत्व देना होगा.प्रकृति को सहेजना और भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित करना मानव मात्र का कर्तव्य है ,जिसे मिलजुल सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था को निभाना वर्तमान समय में अति आवश्यक है। समाज के हर नागरिक को जागरूक और कर्तव्य बोध से अवगत कराया जाना अत्यंत आवश्यक है ताकि वर्तमान समय में और भविष्य में मानव अस्तित्व को बनाये रखना संभव हो सके.
विक्रम वर्मा
स्वतंत्र लेखक
चम्बा हिमाचल प्रदेश।

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