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विश्व पर्यावरण दिवस: धरती को बचाने का संकल्प, प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की ओर एक कदम 

By: केदार सिंह चौहान 'प्रवर'

5 जून को मनाया जाने वाला विश्व पर्यावरण दिवस हमें न केवल पर्यावरण की महत्ता का बोध कराता है, बल्कि यह आत्मावलोकन का अवसर भी प्रदान करता है कि हमने प्रकृति को क्या दिया और क्या छीन लिया। आइए, एक साथ सोचें, समझें और समाधान की दिशा में कदम बढ़ाएं।

धरती — वह माँ, जिसने जीवन को आकार दिया। वह वायुमंडल, जो हमें साँस लेने का अवसर देता है। वह जल, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। वह वृक्ष, जो निःस्वार्थ भाव से हमें प्राणवायु प्रदान करता है। लेकिन क्या हमने इस माँ को उसकी संतान होने के योग्य स्नेह दिया? विश्व पर्यावरण दिवस केवल एक दिवस नहीं, बल्कि हमारी संवेदनाओं को झकझोरने वाला वह क्षण है, जब हमें आत्मचिंतन करना होता है — क्या हम सही दिशा में हैं?

हर वर्ष 5 जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस' केवल भाषणों या आयोजनों का नाम नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा आह्वान है जो कहता है — अब नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी।

विश्व पर्यावरण दिवस का इतिहास और उद्देश्य

1972 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित यह दिवस पहली बार 5 जून 1974 को मनाया गया था। इसका उद्देश्य था लोगों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर चेतना फैलाना और उन्हें सक्रिय रूप से भागीदारी के लिए प्रेरित करना। तब से यह दिवस हर वर्ष एक थीम के साथ मनाया जाता है, जो उस वर्ष के वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दे को केंद्र में लाता है।

2025 की थीम है: "Land restoration, desertification and drought resilience"
(भूमि पुनर्स्थापन, मरुस्थलीकरण और सूखा प्रतिरोधक क्षमता)

यह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि भूमि की उर्वरता, जल संकट और सूखे की समस्या अब केवल दूर-दराज के देशों तक सीमित नहीं रही, यह हमारे दरवाजे तक आ पहुँची है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण: परंपरा और आधुनिकता के बीच

भारत में प्रकृति को हमेशा देवी-देवताओं का स्वरूप माना गया है — नदी को माता, वृक्षों को देवता, पशु-पक्षियों को कुलपरिवार का अंग। लेकिन यह आध्यात्मिक जुड़ाव आधुनिकता की दौड़ में कहां खो गया? जिस देश में तुलसी का पौधा आंगन में पवित्रता का प्रतीक होता था, वहीं अब वह कंक्रीट की छतों में गमलों तक सीमित हो गया है।

भारत एक विविधतापूर्ण देश है — यहाँ हिमालय की हिमनदियाँ हैं, पश्चिम का रेगिस्तान है, दक्षिण का समुद्र तट है, और मध्य का हरा-भरा क्षेत्र। लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर इन सभी पर एक समान रूप से पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन और भारत पर पड़ता प्रभाव

भारत में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, मानसून अस्थिर हो गया है, बाढ़ और सूखा एक ही राज्य में बारी-बारी से दस्तक दे रहे हैं। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ जैसे महानगरों की हवा जहरीली हो चुकी है। 'ग्रीन इंडिया' की कल्पना तब तक अधूरी है जब तक हम अपने रोज़मर्रा के कार्यों में बदलाव नहीं लाते।

कुछ खतरनाक आँकड़े:
भारत में 75% भूजल स्तर खतरनाक स्तर तक गिर चुका है।
देश के 25% वन क्षेत्र खतरे की सीमा पर हैं।
प्रति वर्ष लगभग 1.5 मिलियन लोग वायु प्रदूषण के कारण असमय काल के गाल में समा जाते हैं।
क्या है समाधान? जन भागीदारी ही एकमात्र रास्ता

सरकारें योजनाएँ बनाती हैं, घोषणाएँ होती हैं, लेकिन जब तक नागरिक स्वयं इसमें भाग नहीं लेंगे, कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती।

क्या कर सकते हैं हम?
हर घर एक पेड़: जन्मदिन या त्योहार पर पौधा रोपण की परंपरा अपनाएं।
जल बचाएं: वॉशिंग मशीन, कार वॉश और नलों के प्रयोग में सतर्कता बरतें।
प्लास्टिक मुक्त जीवन: थैले, बोतल, पैकिंग में पुनः उपयोग की संस्कृति अपनाएं।
बिजली की बचत: LED बल्ब, सौर ऊर्जा और स्विच बंद करने की आदत।
कचरा प्रबंधन: गीले-सूखे कचरे को अलग करना एवं पुनर्चक्रण।
प्राकृतिक खेती: रासायनिक खाद के स्थान पर जैविक खाद का उपयोग।
पर्यावरण शिक्षा की अनिवार्यता

विद्यालयों में सिर्फ एक अध्याय के रूप में नहीं, बल्कि व्यवहारिक रूप से बच्चों को पेड़ लगवाना, वर्षा जल संचयन के मॉडल बनवाना, और प्लास्टिक विरोधी अभियान चलाना पर्यावरण शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए।

तकनीक और पर्यावरण संरक्षण

डिजिटल युग में तकनीक का प्रयोग पर्यावरण की रक्षा में एक सशक्त साधन बन सकता है। उदाहरणस्वरूप:

GIS और सैटेलाइट डेटा द्वारा वन क्षेत्र की निगरानी।
AI आधारित भविष्यवाणी से मौसम संबंधी आपदाओं का पूर्व अनुमान।
स्मार्ट सिटी योजना में ग्रीन बिल्डिंग और ऊर्जा कुशल यातायात प्रणाली।
उत्तराखण्ड की भूमिका: देवभूमि का पर्यावरणीय संघर्ष

उत्तराखण्ड — हिमालय की गोद में बसा एक सुंदर, शांत और समृद्ध प्रदेश, जहाँ की नदियाँ, पर्वत और जंगल ही इसकी पहचान हैं। लेकिन विकास के नाम पर जंगल कटान, नदियों का दोहन, और तीव्र निर्माण कार्य इस स्वर्ग को विनाश की ओर धकेल रहे हैं।

चारधाम यात्रा, बांध निर्माण, टिहरी झील, साहसिक पर्यटन, इन सबका पर्यावरण पर प्रभाव गंभीर हो चुका है। विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर उत्तराखण्ड के लोगों को विशेष रूप से यह संकल्प लेना चाहिए कि:

स्थानीय संसाधनों का सम्मान करें।
पर्यावरणीय अध्ययन को पर्यटन नीति से जोड़ें।
स्थायी विकास के मॉडल को अपनाएं।
भारतीय संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण

योग, आयुर्वेद, सतोगुणी आहार, पंचतत्व का सिद्धांत — ये सभी प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली को ही दर्शाते हैं। हमारी संस्कृति में “सर्वे भवन्तु सुखिनः” का भाव है, जिसमें पशु-पक्षी, जल-थल, वृक्ष-लता सभी का समावेश है। हमें आवश्यकता है इसे व्यवहार में लाने की।

अभी नहीं चेते तो कल नहीं बचेगा

विश्व पर्यावरण दिवस पर भाषण देना, हरे रंग के कपड़े पहनना या स्लोगन लगाना तब तक अधूरा है जब तक हम अपने जीवन में मौलिक बदलाव न लाएं।

प्रकृति हमें रोज़ संकेत देती है — तूफानों से, सूखों से, गर्मियों से, प्रदूषण से। प्रश्न यह है कि हम उन्हें सुन रहे हैं या अनसुना कर रहे हैं?

एक संकल्प

"मैं प्रतिज्ञा करता/करती हूँ कि—

मैं जल, वायु और पृथ्वी की रक्षा करूँगा।
अधिकाधिक पेड़ लगाऊँगा।
प्लास्टिक और प्रदूषण से दूर रहूँगा।
प्रकृति के साथ संतुलन में जीवन जीने का प्रयास करूँगा।"
समापन पंक्तियाँ (काव्यात्मक शैली में):

"धरती बोले थक गई हूँ अब,
पत्तों की चुप्पी कहती है सब।
वक़्त है अभी भी सँभल जाने का,
प्रकृति को बचाने का, जीवन अपनाने का।"


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