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प्रकृति की व्यवस्था

प्रकृति की एक गहरी व्यवस्था है, आपको वही मिलता है या मिल सकता है, जिसे आप सहन कर सकते हैं। आप यह मत सोचना कि परम आनंद आपको मिल जाए, तो आप सहन कर लेंगे। अगर आप आनंद के आदी नहीं हो गए हैं, तो परम आनंद आपके लिए घातक हो जाएगा। मृत्यु हो जाएगी, उतने बड़े विस्फोट को आप झेल नहीं पाएंगे, जैसे कोई निपट अँधेरे से निकलकर अचानक सूर्य के सामने आ जाए, तो आँखें बंद हो जाती हैं, चौंधिया जाती हैं। पुनः घना अंधकार छा जाता है आँखों के सामने। आँखें सूर्य को देख ही न पाएंगी। सूर्य को देखने के लिए आँखों को धीरे-धीरे खोलना—तैयार करना होगा। मिट्टी की दीया भी सूरज का ही हिस्सा है। उसे देखने से तैयारी करें, नहीं तो सूर्य के सामने आँखें अंधी हो जाएंगी, तो प्रकृति की जो व्यवस्था है, वह उसी को मिलती है, जो उसे झेल सकता है। साधना केवल पाने की ही खोज नहीं है, झेलने या सहन करने की तैयारी भी है।
“केवल दो शब्दों पर ही मनुष्य का पूरा जोर होना चाहिए—प्रेम और ध्यान—क्योंकि मनुष्य की मुक्ति के दो ही उपाय हैं—एक का नाम है प्रेम और दूसरे का नाम है ध्यान!”

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