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शिव नारायण चंद्रपॉल एक नाम जो वेस्ट इंडीज़ लोगो के दिल मे छुपा है

बात करते है वेस्ट इंडीज टीम की , जब कोई वेस्ट इंडीज़ क्रिकेट की बात करता है, तो सबसे पहले नाम आता है — ब्रायन लारा। और क्यों ना आए? लारा में वो ‘राजसी अंदाज़’ था, वो ‘कलात्मकता’ थी जो देखने वालों का दिल जीत ले। मगर, वहीं दूसरी छांव में एक और खिलाड़ी चुपचाप मैदान पर खड़ा रहा — वो भी रन बनाता रहा, वो भी मैच जिताता रहा… लेकिन तालियां हमेशा किसी और के लिए बजती रहीं। वो खिलाड़ी था — शिवनारायण चंद्रपॉल। जो लारा से किसी भी लिहाज़ से कम नहीं था, मगर उसे वो सम्मान और पहचान कभी नहीं मिली, जिसका वो हकदार था।

164 टेस्ट, 11,867 रन, 30 शतक, 66 अर्धशतक। ये आंकड़े किसी भी खिलाड़ी को महान कहने के लिए काफी हैं। लेकिन चंद्रपॉल की महानता आंकड़ों से नहीं, उनकी मौजूदगी से महसूस होती थी। जहां लारा मैदान पर तूफान लाते थे, चंद्रपॉल वहां एक चट्टान की तरह खड़े रहते थे — ना हिले, ना डरे, ना गिरे। "जब टीम को रोमांच चाहिए था, लारा थे। जब टीम को सहारा चाहिए था, चंद्रपॉल थे।"

अब आइए उस एतिहासिक पल पर जब चंद्रपॉल ने दुनिया को दिखाया कि वो सिर्फ़ टिकते नहीं, मैच भी जिताते हैं। साल 2003 – ऑस्ट्रेलिया जैसी विश्वविजेता टीम वेस्ट इंडीज़ दौरे पर थी।
चौथे टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया ने वेस्ट इंडीज के सामने लक्ष्य 418 रन का लक्ष्य रखा। इतिहास गवाह था कि इतनी बड़ी रन चेज़ कभी नहीं हुई थी। मगर उस दिन शिवनारायण चंद्रपॉल ने 104 रनों की जुझारू पारी खेली। चंद्रपॉल उस दिन ना सिर्फ़ टिके, बल्कि एक-एक रन जोड़ते हुए वेस्ट इंडीज़ को इतिहास की सबसे बड़ी रन-चेज़ में जीत दिला दी।

जब लारा चले गए, गेल आए-गए, ब्रावो चमके-बुझे — बस एक ही नाम था जो हर बार स्कोरकार्ड पर टिका रहता था: शिवनारायण चंद्रपॉल – नाबाद"। शिव सिर्फ़ एक खिलाड़ी नहीं, एक आदत बन गए थे। एक ऐसी आदत – जिसने हमें सिखाया कि हर नायक को तालियों की ज़रूरत नहीं होती, कुछ नायक शांति से महानता रचते हैं।

लारा और चंद्रपॉल एक ही टीम में खेले, एक ही समय में। मगर अंतर यह था कि लारा जहां स्पॉटलाइट में थे, चंद्रपॉल अक्सर उस रोशनी के पीछे खड़े रहते थे। "दोनों रन बनाते थे, दोनों मैच जिताते थे — मगर लारा ‘लिजेंड’ कहलाए, और चंद्रपॉल सिर्फ़ ‘भरोसेमंद बल्लेबाज़’।"

ये क्रिकेट की दुनिया का सबसे बड़ा अन्याय था। क्योंकि जिस इंसान ने दो दशकों तक टीम को संभाला, वो एक विदाई मैच भी नहीं पा सका, जो उसे मिलनी चाहिए थी। 2015 में, जब उन्होंने क्रिकेट को अलविदा कहा, तो ना कोई प्रेस मीट हुई, ना स्टेडियम में आंसू बहाए गए। बस वही चंद्रपॉल अंदाज़ में — शांति से आए थे, शांति से चले गए। "शायद इसलिए कि उन्हें कभी दिखावे की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि उन्होंने काम हमेशा दिल से किया, चेहरे से नहीं।"

शिवनारायण चंद्रपॉल – एक नाम, जो दिलों में छुपा है। वो लारा जितना चमकदार नहीं था — मगर उतना ही ज़रूरी था। वो पोस्टर बॉय नहीं था — मगर टीम का आधार था। और वो कभी 'भगवान' नहीं कहा गया — मगर क्रिकेट का संत ज़रूर था।
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