logo

हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का गठबंधन: 1940 के दशक में एक विवादास्पद इतिहास...

दरभंगा, 30 जुलाई 2025: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1940 का दशक एक जटिल और विवादास्पद दौर रहा, जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने कुछ प्रांतों में मिलकर गठबंधन सरकारें बनाई थीं। यह गठबंधन मुख्य रूप से बंगाल, सिंध और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (NWFP) में देखा गया। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने द्वितीय विश्व युद्ध के विरोध में अपनी प्रांतीय सरकारें भंग कर दी थीं, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग को समर्थन दिया, क्योंकि ये संगठन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल नहीं हुए थे।
बंगाल में गठबंधन सरकार
1941 में बंगाल में मुस्लिम लीग के नेता एके फजलुल हक के नेतृत्व में एक गठबंधन सरकार बनी, जिसमें हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्त मंत्री थे। यह सरकार लगभग एक वर्ष तक चली और इसे हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाला बताया गया। हिंदू महासभा के तत्कालीन नेता विनायक दामोदर सावरकर ने 1942 के कानपुर अधिवेशन में इस गठबंधन को "व्यावहारिक राजनीति" का हिस्सा बताकर इसका समर्थन किया था।
सिंध और NWFP में सहयोग
सिंध में भी हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाई। सावरकर ने इसे हिंदू हितों की रक्षा के लिए आवश्यक समझौता करार दिया। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (NWFP) में भी दोनों संगठनों ने सीमित दायरे में गठबंधन सरकार चलाई। यह गठबंधन वैचारिक समानता पर आधारित था, क्योंकि सावरकर और मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना दोनों ही "दो-राष्ट्र सिद्धांत" को मानते थे। सावरकर ने 1937 के अहमदाबाद अधिवेशन में इस सिद्धांत को स्पष्ट किया था, जो बाद में 1940 के लाहौर प्रस्ताव (पाकिस्तान प्रस्ताव) से मेल खाता था।
भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध
1942 में जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, तो हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। हिंदू महासभा के नेता सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसे अव्यवहारिक और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा माना। मुखर्जी ने बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर जॉन हरबर्ट को पत्र लिखकर आंदोलन को दबाने के लिए सुझाव दिए और ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग का वादा किया। दूसरी ओर, मुस्लिम लीग ने भी इस आंदोलन को "हिंदू-प्रधान" करार देकर इसका बहिष्कार किया, क्योंकि वे अपनी अलग पाकिस्तान की मांग को मजबूत करना चाहते थे।
रणनीतिक गठबंधन और आलोचना
हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का गठबंधन एक रणनीतिक कदम था, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के प्रभाव को कम करना और ब्रिटिश समर्थन से सत्ता हासिल करना था। हालांकि, इस गठबंधन ने दोनों संगठनों की राष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुँचाया। खासकर हिंदू महासभा को बाद में "राष्ट्रवादी" साख खोने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी। इतिहासकारों का मानना है कि यह गठबंधन उनकी वैचारिक समानता और ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग की नीति पर आधारित था, लेकिन इसने स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका को विवादास्पद बना दिया।
आज की प्रासंगिकता
हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का यह गठबंधन आज भी भारतीय राजनीति में चर्चा और विवाद का विषय बना हुआ है। इतिहास के इस पन्ने से यह स्पष्ट होता है कि उस समय की राजनीति में वैचारिक और रणनीतिक समझौते किस तरह जटिल और अप्रत्याशित थे। यह दौर स्वतंत्रता संग्राम की चुनौतियों और विभिन्न संगठनों के दृष्टिकोण को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।

37
7504 views