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उत्तराखंड पंचायत चुनाव में चौंकाने वाला मामला: एक प्रत्याशी को मिला शून्य वोट, और दूसरे को सिर्फ एक...

उत्तराखंड के त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में इस बार लोकतंत्र का जो रंग देखने को मिला, उसने न सिर्फ जनता को चौंका दिया बल्कि राजनीति के कड़वे सच को भी उजागर किया। जहां एक ओर प्रत्याशी वोटों की गिनती में जीत-हार के बीच संघर्ष करते रहे, वहीं दूसरी ओर दो ऐसे प्रत्याशियों की किस्मत चर्चा का विषय बन गई, जिन्हें या तो केवल एक वोट मिला या कोई भी नहीं।



यह नतीजे केवल आंकड़े नहीं थे, बल्कि विश्वास, रिश्तों और स्थानीय राजनीति का ऐसा चेहरा सामने लाए जो सवाल खड़े करता है — क्या यह लोकतंत्र की जीत थी या सामाजिक विफलता की गूंज?



📍 मामला-1: पौड़ी गढ़वाल में कुलदीप को मिले 0 वोट – क्या खुद का वोट भी नहीं दिया?

यहां चौंकाने वाला मामला सामने आया पौड़ी गढ़वाल जिले के बीरोंखाल विकासखंड के नागणी गांव से, जहां कुलदीप नामक उम्मीदवार ने ग्राम प्रधान पद के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन उसे एक भी वोट नहीं मिला। यानी 0 वोट।




यह स्थिति कई लोगों के लिए विश्वास से बाहर थी, क्योंकि हर प्रत्याशी का सबसे पहला वोट उसका अपना होता है। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि:

क्या कुलदीप ने खुद मतदान नहीं किया?

या उसका वोट अमान्य या रद्द हो गया?

या फिर तकनीकी कारणों से मतदान प्रक्रिया से वंचित रह गया?



📍 मामला-2: नैनीताल के तिवारी गांव में दो भाइयों की सियासी जंग, लेकिन एक को मिला सिर्फ 'एक' वोट



उत्तराखंड के नैनीताल जिले के बेतालघाट विकासखंड स्थित तिवारी गांव ग्रामसभा में पंचायत चुनाव के दौरान एक चौंकाने वाली स्थिति देखने को मिली। यहां ग्राम प्रधान पद के लिए मैदान में दो सगे भाई उतर गए।





पंचायत चुनावों में अक्सर रिश्तेदार या परिवार के सदस्य आपसी सहमति से एक प्रत्याशी का समर्थन करते हैं, लेकिन यहां दोनों भाइयों ने पीछे हटने से इनकार कर दिया। नामांकन वापसी की तारीख तक कोई भी पीछे नहीं हटा, नतीजतन दोनों को अलग-अलग चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिए गए।

लेकिन असली झटका तब लगा जब मतगणना के दिन नतीजे सामने आए। एक भाई को क्षेत्र की जनता ने समर्थन देकर अच्छी संख्या में वोट दिए, लेकिन दूसरे भाई को सिर्फ एक वोट मिला — और वह शायद उसका खुद का वोट था।

गांव वालों के अनुसार, यह स्थिति न केवल चौंकाने वाली, बल्कि हास्यास्पद भी थी। पंचायत चुनावों में जहाँ आमतौर पर प्रत्याशी खुद के अलावा कम से कम परिवार, रिश्तेदार और पड़ोसियों के वोट की अपेक्षा रखते हैं, वहां किसी को सिर्फ एक वोट मिलना कई सवाल खड़े करता है।



🤔 एक वोट और ज़ीरो वोट का क्या मतलब है?

इन दोनों मामलों में आंकड़े भले ही छोटे हों — 1 वोट और 0 वोट, लेकिन इनके पीछे की कहानी बहुत कुछ बयां करती है:



🔹 1. विश्वास की हार:

जब कोई प्रत्याशी गांव वालों को अपना प्रतिनिधि मानकर चुनाव लड़ता है और उसे खुद के परिवार से भी समर्थन नहीं मिलता, तो यह सिर्फ उसकी हार नहीं, रिश्तों की हार भी होती है।



🔹 2. जनता की जागरूकता:

इन घटनाओं से यह भी साबित होता है कि अब जनता भावनाओं के आधार पर वोट नहीं देती। उन्हें विकास, कार्य, और जनसेवा चाहिए — केवल वादे नहीं।



🔹 3. सोशल मीडिया का मज़ाक:

इन मामलों के सोशल मीडिया पर वायरल होते ही कई मीम्स और चुटकुले बनाए गए, लेकिन असल में यह हँसी का नहीं, गंभीर सोच का विषय है।



📊 विश्लेषण: आंकड़ों से ज़्यादा आत्ममंथन की ज़रूरत

उत्तराखंड जैसे राज्य में जहाँ पंचायत चुनावों को लोग प्रतिष्ठा का प्रश्न मानते हैं, वहां ऐसी घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि:

राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज़रूरी है, लेकिन ज़मीनी पकड़ और जन समर्थन ज़्यादा ज़रूरी है।

सिर्फ नामांकन भर देना, चुनाव प्रचार करना और प्रचार वाहन चलाना पर्याप्त नहीं।

जनता अब भावनात्मक ब्लैकमेल से ऊपर उठ चुकी है, वह नतीजों से जवाब देती है।



📢 क्या कहता है चुनाव आयोग?

इन घटनाओं पर चुनाव आयोग ने तो कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं दी, लेकिन चुनाव नियमों के अनुसार:

अगर कोई प्रत्याशी खुद भी मतदान न करे, तो उसे रिटर्निंग ऑफिसर की रिपोर्ट में शामिल किया जाता है।

प्रत्याशी का वोट अमान्य होने की स्थिति में उसे 0 वोट ही दर्ज होता है।

यह तकनीकी रूप से संभव है, परंतु दुर्लभ है।



राजनीति सेवा का माध्यम होनी चाहिए, केवल पद की लालसा नहीं।

और मतदाता केवल परिचित नामों को नहीं, बल्कि योग्य प्रतिनिधियों को चुने — ताकि पंचायतों में विकास हो, और ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों।

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