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मनुष्य के बार बार जन्म मृत्यु का कारण क्या है


एकबार द्वारकानाथ श्री कृष्ण अपने महल में दातुन कर रहे थे! रुक्मिणी जी स्वयं अपने हाथों में जल लिए उनकी सेवा में खड़ी थी! अचानक द्वारकानाथ हंसने लगे! रुक्मिणी जी ने सोचा शायद मेरी सेवा में कोई गलती हो गई है तभी द्वारिका नाथ हंस रहे हैं!!
रुक्मिणी जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा.. प्रभु! आप दातुन करते हुए अचानक इस तरह हंसने क्यों लगे मुझसे कोई गलती हो गई क्या? कृपया आप मुझे हंसने का कारण बताइए।। श्री कृष्ण बोले.. नहीं देवी! आपसे सेवा में त्रुटि होना कैसे संभव है,आप ऐसा न सोचें बात कुछ और है!
रुक्मिणी ने कहा..आप अपने हंसने का रहस्य मुझे बता दें तो मुझे शांति मिल जाएगी नहीं तो मेरे मन में बैचेनी रहेगी! तब श्री कृष्ण ने कहा.. देखो,वो सामने एक चीटा चींटी के पीछे कितनी तेजी से दौड़ता चला जा रहा है वो अपनी पूरी ताकत लगाकर चींटी को पा लेना चाहता है! उसे देखकर मुझे अपनी मायाशक्ति की प्रबलता का विचार करके हंसी आ रही है! रुक्मिणी जी ने चकित होकर कहा "वह कैसे प्रभु! इस चींटी के पीछे चींटा को दौड़ते देख आपको अपनी माया शक्ति की प्रबलता कैसे दिख गई!"
भगवान श्री कृष्ण ने कहा.. मैं इस चीटै को 14बार इंद्र बना चुका हूं,14 बार देवराज के पद का भोग करने पर भी इनकी भोगलिप्सा समाप्त नहीं हुई है यह देखकर मुझे हंसी आ गई! इंद्र की पदवी भी भोगयोनि है, 100अश्वमेघ यज्ञ करने वाला व्यक्ति इंद्र पद प्राप्त कर लेता है!लेकिन जब उसके भोग पूरे हो जाते हैं तो वो पृथ्वी पर जन्म लेता है !
प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तब जीवन कलुषित हो जाता है और बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ता है! वासना ही पुनर्जन्म का कारण है इसलिए वासना को नष्ट करना चाहिए ! वासना पर बिजय पाना ही सुखी होने का उपाय है। *बुझे न काम अगिनी तुलसी कहूँ, विषय भोग बहु घी तें* 👉 अग्नि में घी डालते जाइए वह और भी धधकती जाएगी, यही दशा काम की है उसे बुझाना हो तो संयम रूपी जल डालना होगा! संसार का मोह छोड़ना बहुत कठिन है ! वासनाएं बढ़ती हैं तो भोग बढ़ते हैं, इससे संसार कटु हो जाता है! वासनाएं जब तक क्षीण न हो तब तक मुक्ति नहीं मिलती! पुनर्जन्म का शरीर तो चला गया परंतु पूर्वजन्म का मन नहीं!!
! नास्ति तृष्णासमं दुखं नास्ति त्यागसमं सुखम !
!! सर्वान कामान परियज्य ब्राह्मभूयाय कलपते!!
अर्थात्.. तृष्णा के समान कोई दुख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है! समस्त कामनाओं मान,बड़ाई, स्वाद,शौकीन, सुख, भोग, आलस्य आदि का परित्याग करके केवल भगवान की शरण लेने से ही मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है!!

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