
पनीर की कहानी, अनोखी और बेगानी...
खुद खरीदो तो होश उड़ जाए...
होटल पर खाने जाओ बहुत सस्ता नजर आए...
पनीर की कहानी, अनोखी और बेगानी...
खुद खरीदो तो होश उड़ जाए...
होटल पर खाने जाओ बहुत सस्ता नजर आए...
हाईवे के किसी सस्ते ढाबे पर जाइए – मेन्यू खोलिए तो कम से कम आधा दर्जन पनीर की डिश मिलेंगी। पाँच सितारा होटल के मेन्यू में भी “वेजिटेरियन सेक्शन” देख लीजिए, वहाँ करीब 60% आइटम पनीर आधारित ही होंगे।
अब सोचिए – 30 रुपये में 6 पनीर मोमोज, 50 रुपये में पनीर पिज़्ज़ा, 100 रुपये में बटर पनीर और 40 रुपये में पनीर कुलचा... क्या ये सब वाकई असली पनीर से बन सकता है?
जरा गणित समझिए – 1 लीटर अमूल का फुल क्रीम दूध लगभग 70 रुपये का आता है। इतने दूध से करीब 200 ग्राम पनीर तैयार होता है। यानी 1 किलो पनीर के लिए कम से कम 5 लीटर दूध चाहिए, जिसकी कीमत लगभग 350 रुपये बैठेगी।
अगर दूध फैक्ट्री रेट पर भी 50 रुपये लीटर मिले, तो भी 1 किलो पनीर बनाने में 250 रुपये सिर्फ दूध की लागत होगी। उस पर लेबर, गैस, पानी और ट्रांसपोर्टेशन जोड़ दीजिए तो असली लागत लगभग 315 रुपये किलो से कम नहीं बैठती। अगर दुकानदार सिर्फ 10% मुनाफे पर भी बेचे, तो पनीर की कीमत 345-350 रुपये किलो होनी चाहिए।
तो सोचिए, जब बाज़ार में आपको 200-250 रुपये किलो पनीर मिलता है तो क्या दुकानदार घाटे में बेच रहा है? या फिर आपके सामने कोई और खेल चल रहा है?
असल में खेल यही है – एनालॉग पनीर।
यह दूध से नहीं, बल्कि पाउडर मिल्क, पाम ऑयल, डालडा, स्टार्च, अरारोट और केमिकल एजेंट्स से बनता है। चूंकि पाउडर मिल्क में फैट नहीं होता, इसलिए उसमें सस्ता तेल मिलाकर उसे ठोस रूप दिया जाता है। यही तेल धीरे-धीरे हमारी नसों में जमते जाते हैं।
इससे भी घटिया स्तर पर आता है – यूरिया और डिटर्जेंट से बना नकली पनीर।
यही वह पनीर है जो आपको 30 रुपये के मोमो, 50 रुपये के पिज़्ज़ा-बर्गर या सस्ती थालियों में मिलता है। इसका ज़हर धीरे-धीरे किडनी और लीवर पर वार करता है, और लंबे समय तक खाने से यह जानलेवा साबित हो सकता है।
ज़रा आँकड़े देखिए – भारत रोज़ाना लगभग 64 करोड़ लीटर दूध उत्पादन करता है। अगर पूरा दूध फाड़कर पनीर बनाया जाए, तो लगभग 1.2 करोड़ किलो पनीर ही बनेगा। लेकिन खपत? करीब 1.5 करोड़ किलो पनीर रोज़।
यानी जितना दूध है, उससे ज्यादा पनीर बाज़ार में बिक रहा है। यह कैसे संभव है? जवाब साफ है – बाज़ार में 80% से अधिक पनीर नकली है।
चाहे रोडसाइड ढाबा हो या फाइव स्टार होटल, सब जगह यही नकली पनीर पहुँच रहा है। यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों में लिवर और किडनी से जुड़ी बीमारियाँ तेज़ी से बढ़ी हैं।
कभी मौका मिले तो शहर की गलियों में चलिए – वहाँ बड़े-बड़े भगौनों में उबलते घोल दिखेंगे, जिनमें दूध नहीं, बल्कि यूरिया और केमिकल पक रहे होते हैं। और जो लोग यह पनीर बना रहे होते हैं, उनसे कहिए कि ज़रा वही पनीर खाकर दिखाएँ – वे खुद पीछे हट जाएंगे।
अगली बार किसी होटल में पनीर मंगाएँ तो कह दीजिए – “पहले एक कच्चा टुकड़ा दिखाइए।”
आप देखेंगे कि वेटर या मालिक के पास बहाने ही बहाने होंगे।
दूध और दूध से बने उत्पाद आज सबसे बड़ा धोखा बन चुके हैं। सरकारें पकड़ तो लेती हैं, लेकिन नियम इतने ढीले हैं कि सज़ा मामूली-सी होती है। लाखों लोगों की ज़िंदगियाँ बर्बाद होती हैं, मगर जिम्मेदार कोई नहीं ठहरता।
अब एक ही उपाय बचता है – जागरूकता।
जानकारी बाँटिए, सच बताइए और समझिए कि असली पनीर आखिर कैसे और कितने में बन सकता है। वरना हाल यही रहेगा – इंसान धीरे-धीरे किडनी-लिवर की बीमारियों से मरते रहेंगे और नकली पनीर का कारोबार फलता-फूलता रहेगा।