
आंदोलनरत सांख्यिकी स्वयं सेवकों {ASV} को कब मिलेगा न्याय ?
2025 में बिहार के सांख्यिकी स्वयंसेवकों की समस्या एक तीव्र राजनीतिक और सामाजिक चर्चा का विषय बनी हुई है। आलोचनात्मक दृष्टिकोण से इस विषय को देखने पर कई महत्वपूर्ण पहलू उभरकर सामने आते हैं:
वर्तमान वस्तुस्थिति समझने से पूर्व इस नियुक्ति की पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक है । 2012-13 में बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों को पात्रता परीक्षा के बाद नियुक्त किया गया था, जिन्होंने फसल कटाई, जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने, और आर्थिक गणना जैसे महत्वपूर्ण सरकारी काम पूरे ईमानदारी से किए। लेकिन अचानक से उनकी सेवाएं बंद कर दी गईं और उनके समायोजन का जो आश्वासन सरकार ने दिया था, वह कई वर्षों से पूरा नहीं हुआ। इससे हजारों युवा बेरोजगार हुए हैं। यह स्थिति न केवल सरकारी नीति की विफलता दर्शाती है बल्कि एक बड़ी जनसांख्यिकीय समस्या को जन्म देती है।
इसे राजनीतिक पहलू से देखें तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ऊपर गंभीर आरोप लगे हैं कि उन्होंने स्वयंसेवकों को बस चुनावी घोषणाओं तक सीमित रखा है और उन्हें रोजगार नहीं दिया जाएगा। आंदोलन के साथ-साथ उनके प्रति निराशा और अविश्वास गहरा रहा है। विरोध प्रदर्शन और ज्ञापन सौंपे जाने के बावजूद, सरकार की ठोस कार्रवाई या स्पष्ट समयसीमा नहीं दी गई है। कुछ विश्लेषक कहते हैं कि यह विपक्ष के राजनीतिक वादों और गठबंधन समीकरणों के बीच फंसे स्वयंसेवकों के बीच एक राजनीतिक उपेक्षा है।
तीसरा, स्वयंसेवकों की अपनी असंगठित स्थिति भी उनके संघर्ष को कमजोर कर रही है। कई स्वयंसेवक राजनीतिक दलों के नाम पर अपने मतभेदों और भ्रमों में उलझे हुए हैं, जिससे उनकी एकजुटता और दबाव बनाने की शक्ति कम हो रही है। आलोचक यह कहते हैं कि अगर 72,000 स्वयंसेवक एकजुट होकर सशक्त आंदोलन करते, तो सरकार पर रोजगार देने का दबाव कहीं अधिक प्रभावशाली होता।
चौथा, सामाजिक स्तर पर यह मामला बिहार की बड़ी रोजगार और युवाओं के भविष्य की समस्या को उजागर करता है। जाति-धर्म आधारित राजनीति के चलते बेरोजगारी जैसी मूलभूत समस्याएं राजनीतिक एजेंडों से बाहर रह जाती हैं। इस स्थिति में सांख्यिकी स्वयंसेवकों का आंदोलन युवाओं की आवाज का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे व्यापक रूप से समर्थन और समझ की आवश्यकता है।
अंत में, सरकार को अपनी नियत स्पष्ट करना चाहिए कि वह स्वयंसेवकों के मुद्दे को चुनावी वादों से ऊपर उठाकर स्थाई समाधान दे। इसके लिए पारदर्शिता, स्पष्ट बातचीत, रोजगार के अवसरों का सृजन और स्वयंसेवकों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को सशक्त बनाना जरूरी है। तभी बिहार में इनकी भलाई सुनिश्चित हो सकती है और युवाओं में निराशा की भावना कम हो सकेगी।
इस प्रकार समझा जा सकता है कि, बिहार के सांख्यिकी स्वयंसेवकों की दुविधा केवल रोज़गार का मामला नहीं रह गई बल्कि यह सरकार की नीति, राजनीतिक ईमानदारी और सामाजिक न्याय की कसौटी बन चुकी है। आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान इस मुद्दे को गंभीरता से लेना और इसका समाधान निकालना राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्य हो गया है, अन्यथा यह आंदोलन और व्यापक सामाजिक परेशानी का रूप ले सकता है।
पुरुषोत्तम झा
पटना
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