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क्या भारत की न्यायिक प्रणाली, विकसित भारत के सपने में सबसे बड़ी बाधा है?

भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने पर 2047 तक “विकसित भारत” बनने का लक्ष्य तय किया है। विकसित राष्ट्र बनने का अर्थ केवल आर्थिक प्रगति नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, शिक्षा-स्वास्थ्य में समान अवसर, कानून-व्यवस्था की मजबूती और नागरिकों को समयबद्ध व निष्पक्ष न्याय प्रदान करना भी है। लोकतंत्र में न्यायपालिका को ‘आख़िरी उम्मीद’ माना जाता है। किंतु यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत की न्यायिक व्यवस्था आज उस रूप में कार्य कर रही है, जो विकसित भारत के सपने को साकार करने में सहायक हो, या फिर यह व्यवस्था स्वयं सबसे बड़ी बाधा बन गई है?
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर लोकतंत्र को मज़बूत बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आपातकाल के दौर में, या नागरिक अधिकारों की रक्षा के मामलों में, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई ऐतिहासिक निर्णय लोकतंत्र की रीढ़ साबित हुए। परंतु दूसरी ओर, लंबित मामलों का पहाड़, न्याय तक पहुँच की असमानता, ऊँची लागत, पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न और न्याय में देरी—ये समस्याएँ न्यायपालिका को कमजोर और आमजन के लिए अप्रभावी बना रही हैं।
हम यह विश्लेषण करेंगे कि न्यायपालिका किस प्रकार विकसित भारत के सपने में बाधा उत्पन्न करती है, साथ ही इसके सुधार के उपाय क्या हो सकते हैं।
न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति
1. लंबित मामलों का संकट:
आज भारतीय अदालतों में लगभग 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही 70 हज़ार से अधिक मामले लंबित हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में यह संख्या 60 लाख से ऊपर है। निचली अदालतों में लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में है। एक साधारण दीवानी या आपराधिक मामला कई बार 20–25 वर्ष तक खिंच जाता है।
> "Justice delayed is justice denied" — न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है।
2. न्याय की पहुँच और लागत:
आम नागरिक के लिए न्याय पाना आसान नहीं है। वकीलों की ऊँची फीस, प्रक्रियाओं की जटिलता, बार-बार की तारीखें और पेशी के खर्च न्याय को महँगा बना देते हैं। गरीब व मध्यमवर्गीय नागरिक अक्सर या तो न्याय की लड़ाई बीच में छोड़ देते हैं, या फिर वर्षों तक आर्थिक-सामाजिक शोषण झेलते रहते हैं।
3. न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता: भारत में न्यायपालिका को ‘स्वतंत्र’ माना जाता है, किंतु इसकी जवाबदेही पर प्रश्न उठते रहे हैं। कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। कई बार भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप भी लगते हैं। इससे आम नागरिक का विश्वास कमजोर होता है।
4. प्रशासन और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: बड़ी परियोजनाएँ, भूमि अधिग्रहण, औद्योगिक समझौते, पर्यावरणीय मंज़ूरी और नीतिगत फैसले वर्षों तक अदालतों में उलझे रहते हैं। उदाहरण के लिए—कोयला घोटाला, 2G स्पेक्ट्रम मामला, भूमि विवाद आदि। ऐसी स्थितियों से उद्योगपति और निवेशक हिचकिचाते हैं, जिससे आर्थिक विकास की गति धीमी हो जाती है।
5. कानून व्यवस्था पर प्रभाव:
जब न्याय में देरी होती है तो अपराधियों में भय समाप्त हो जाता है और कानून का शासन कमजोर पड़ता है। इससे समाज में असंतोष, अविश्वास और अराजकता की स्थिति उत्पन्न होती है।
विकसित भारत के सपने पर न्यायपालिका का प्रभाव:
1. लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर असर – यदि नागरिकों को समय पर न्याय न मिले तो लोकतंत्र के प्रति उनका विश्वास कम होता है।
2. सामाजिक न्याय में बाधा – दलित, गरीब, महिला और कमजोर वर्ग न्याय की लंबी प्रक्रिया में सबसे अधिक पीड़ित होते हैं।
3. आर्थिक विकास में बाधा – निवेशक व उद्योगपति स्थिर और पारदर्शी न्याय व्यवस्था चाहते हैं। जब परियोजनाएँ अदालतों में वर्षों तक अटकी रहें तो आर्थिक प्रगति रुक जाती है।
4. मानवाधिकारों का उल्लंघन – लंबी कैद, जमानत में देरी, अंडरट्रायल कैदियों की समस्या आदि मानवाधिकारों का हनन करते हैं।
5. राष्ट्रीय छवि पर असर – जब अंतरराष्ट्रीय निवेशक देखते हैं कि भारत की अदालतों में मामले लंबे समय तक चलते हैं, तो भारत की वैश्विक छवि प्रभावित होती है।
चुनौतियों के कारण:
जजों की कमी – भारत में प्रति दस लाख आबादी पर लगभग 21 न्यायाधीश हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 100 से अधिक है।
प्रक्रियात्मक जटिलता – भारतीय न्याय प्रणाली अत्यधिक तकनीकी और लंबी प्रक्रियाओं पर आधारित है।
तकनीकी पिछड़ापन – ई-कोर्ट और डिजिटल सुनवाई जैसी व्यवस्थाएँ अभी भी सीमित हैं।
वैकल्पिक विवाद निपटान की कमी – मध्यस्थता, लोक अदालत और पंचायती न्याय जैसे विकल्प पर्याप्त प्रभावी नहीं हो पाए हैं।
राजनीतिक हस्तक्षेप और कानूनी जटिलता – कई बार न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव से निर्णय और भी विलंबित हो जाते हैं।
सुधार के उपाय
1. न्यायपालिका का आधुनिकीकरण:ई-कोर्ट, ऑनलाइन सुनवाई और डिजिटलीकरण से मामलों का निपटारा तेज़ किया जा सकता है।
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) को और मजबूत करना चाहिए।
2. जजों की संख्या बढ़ाना :
भारत में जजों की भारी कमी है। समय पर नियुक्तियाँ और न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों को सशक्त बनाना आवश्यक है।
3. समयबद्ध न्याय व्यवस्था:
महत्वपूर्ण मामलों, विशेषकर आर्थिक और सामाजिक प्रभाव वाले मामलों के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट की स्थापना होनी चाहिए।
4. वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR): मध्यस्थता, पंचायती न्याय और लोक अदालतों को बढ़ावा देना चाहिए।
इससे छोटे और मध्यम विवाद जल्दी निपट सकते हैं।
5. पारदर्शिता और जवाबदेही:
कॉलेजियम प्रणाली में सुधार कर नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) जैसे विकल्प पर पुनर्विचार होना चाहिए।
जजों के कार्य प्रदर्शन की समीक्षा और जवाबदेही तय होनी चाहिए।
6. कानूनी शिक्षा और जागरूकता
नागरिकों को उनके अधिकार और कानूनी प्रक्रिया के प्रति जागरूक करना ज़रूरी है।
न्यायिक अधिकारियों के लिए निरंतर प्रशिक्षण और नैतिक मूल्यों पर जोर देना चाहिए।
भारत की न्यायिक प्रणाली लोकतंत्र की रीढ़ है। यह सच है कि आज यह प्रणाली कई स्तरों पर विकसित भारत के सपने में बाधा बन रही है—चाहे वह लंबित मामलों का संकट हो, महँगी न्याय प्रक्रिया हो या पारदर्शिता की कमी। लेकिन यह बाधा स्थायी नहीं है।
सुधारों और आधुनिकीकरण के माध्यम से यही न्यायपालिका विकसित भारत का सबसे मज़बूत स्तंभ भी बन सकती है।
यदि भारत को वास्तव में विकसित राष्ट्र बनना है तो यह अनिवार्य है कि उसकी न्याय व्यवस्था तेज़,सुलभ,पारदर्शी,और जवाबदेह हो।
केवल तभी भारत का लोकतंत्र सशक्त होगा और "विकसित भारत 2047" का सपना साकार होगा।

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