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सरकारें क्यों सिर्फ़ उपद्रव के बाद जागती हैं?

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कानून और प्रशासन का सबसे बड़ा दायित्व है — जनता की सुरक्षा, व्यवस्था की मजबूती और अपराधियों पर नियंत्रण। लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल उलट है। बरेली का हालिया मामला इस सच को फिर उजागर करता है कि हमारा तंत्र तब तक सोता रहता है, जब तक समाज में बारूद न फट जाए। मौलाना तौकीर और उसके करीबियों — नफीस, नदीम, आरिफ, फरहत आदि — ने पिछले तीस वर्षों में अरबों रुपये का अवैध साम्राज्य खड़ा कर लिया।
सवाल है:
- इतने लंबे समय तक यह साम्राज्य कैसे खड़ा होता रहा?
- क्या प्रशासन को इसकी भनक नहीं थी?
- क्या नेताओं और अधिकारियों ने जान-बूझकर आँखें मूँद रखीं?
उत्तर किसी को खोजने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि यह स्थिति पूरे देश में हर जगह देखने को मिलती है। सच्चाई यह है कि हमारा सिस्टम निष्क्रिय, भ्रष्ट और वोट बैंक का गुलाम बन चुका है।
1. उपद्रव से पहले क्यों नहीं जागता प्रशासन?
भारत में शायद ही कोई ऐसी घटना हो जहाँ उपद्रव, दंगा, दुर्घटना या बम फटने से पहले सरकार ने सक्रिय होकर रोकथाम की हो।
जब अवैध इमारतें बन रही थीं, तब फाइलें क्यों नहीं खुलीं?
जब लोग जमीनें हड़प रहे थे, तब अधिकारियों की कलम क्यों नहीं चली?
जब अपराधी नेता बन रहे थे, तब निर्वाचन आयोग और पुलिस क्यों चुप रहे?
असल में, प्रशासन की नींद तभी खुलती है जब समाज में विस्फोट हो जाता है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है क्योंकि तब तक जानें जा चुकी होती हैं, शहर जल चुका होता है और जनता तबाह हो चुकी होती है।
2. राजनीतिक संरक्षण: अपराध का सबसे बड़ा सहारा
भारत में अपराध और राजनीति का गठजोड़ इतना गहरा है कि बिना राजनीतिक संरक्षण कोई अपराधी फल-फूल ही नहीं सकता।
मौलाना तौकीर जैसे लोग कोई सामान्य नागरिक नहीं होते। इनके पास भीड़ जुटाने की क्षमता होती है, धार्मिक या सामाजिक प्रभाव होता है और सबसे ज़्यादा — राजनीतिक जोड़-तोड़ होता है।
नेता इन्हें इसलिए संरक्षण देते हैं क्योंकि ये वोट दिलाने वाली “मशीन” होते हैं।
जब भी चुनाव आता है, यही लोग भीड़ खड़ी करते हैं, वोट बैंक संभालते हैं और विपक्ष को डराने का काम करते हैं।
यानी अपराध और अवैध निर्माण का असली गुनहगार सिर्फ़ अपराधी नहीं, बल्कि वह नेता है जो इसे बढ़ावा देता है।
3. प्रशासन की मिलीभगत या मजबूरी?
क्या यह माना जाए कि पुलिस और नगर निगम जैसे संस्थानों को इन 30 वर्षों में कुछ भी पता नहीं था?
हर अवैध इमारत की नींव से लेकर छत तक दर्जनों निरीक्षण होते हैं।
हर बड़े कब्जे में नगर निगम, तहसील और पुलिस की भूमिका होती है।
बिना बिजली-पानी के कनेक्शन कोई भी इमारत खड़ी नहीं हो सकती, और यह सब विभागों की मंजूरी से होता है।
तो फिर सवाल उठता है — क्या यह केवल ढिलाई थी या सीधी मिलीभगत? जवाब साफ़ है: सीधी मिलीभगत।
4. बुलडोज़र की राजनीति: असली समाधान या दिखावा?
आजकल सरकारें बुलडोज़र को “न्याय का प्रतीक” बताने लगी हैं। लेकिन यह बुलडोज़र भी तब चलता है जब जनता का गुस्सा सड़कों पर उतरता है।
30 साल तक अवैध इमारतें बनती रहीं, बुलडोज़र क्यों नहीं चला?
अगर यह सब गैरकानूनी था, तो तब कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
क्या बुलडोज़र केवल दंगे और उपद्रव के बाद फोटो खिंचवाने का औजार है?
बुलडोज़र कार्रवाई असल में समस्या का समाधान नहीं है, यह केवल जनता को यह दिखाने का तरीका है कि “देखो, सरकार सख्त है।” जबकि सच्चाई यह है कि अगर सरकार वाकई सख्त होती, तो ये साम्राज्य खड़ा ही न होता।
5. जनता की कीमत पर राजनीति
हर बार उपद्रव में नुकसान किसका होता है? जनता का।
जनता की दुकानें जलती हैं।
जनता की गाड़ियाँ तोड़ी जाती हैं।
जनता के बच्चों का भविष्य अराजकता की भेंट चढ़ता है।
और जनता ही पुलिस के डंडे खाती है।
जबकि नेता और अपराधी दोनों बच जाते हैं। नेता बयानबाज़ी कर देता है और अपराधी “राजनीतिक शहादत” का फायदा उठाकर और ताकतवर बन जाता है।
6. मीडिया की भूमिका: सच्चाई या दिखावा?
मीडिया का काम था कि वह लगातार इन अवैध गतिविधियों को उजागर करे। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि मीडिया भी अक्सर प्रायोजित खबरों और चैनल की TRP के हिसाब से काम करता है।
उपद्रव हो जाने के बाद मीडिया पूरे जोश में कूद पड़ता है।
बड़े-बड़े डिबेट होते हैं, चैनलों पर बहस होती है, एंकर चीखते हैं।
लेकिन जब यह सब धीरे-धीरे हो रहा था, तब मीडिया की नज़र क्यों नहीं गई?
असल में मीडिया भी “घटना के बाद जागने” वाली प्रवृत्ति का हिस्सा बन चुका है।
7. जनता की जिम्मेदारी: चुप्पी या प्रतिरोध?
यह सच है कि सरकार और प्रशासन की भूमिका सबसे बड़ी है। लेकिन जनता भी पूरी तरह निर्दोष नहीं है।
अगर 30 वर्षों तक किसी मोहल्ले में अवैध निर्माण होते रहे, तो क्या वहाँ के लोगों को इसका पता नहीं था?
क्या स्थानीय स्तर पर विरोध नहीं किया जा सकता था?
क्या नागरिक समाज और संस्थाएँ सोई हुई थीं?
जनता की चुप्पी भी अपराधियों को ताकत देती है।
8. समाधान क्या है?
अब सवाल यह है कि ऐसी स्थिति से निकला कैसे जाए?
1. निवारक नीति अपनाई जाए – प्रशासन को उपद्रव या दंगे से पहले ही संदिग्ध गतिविधियों पर कार्रवाई करनी होगी।
2. सख्त जवाबदेही तय हो – अगर किसी इलाके में अवैध निर्माण होता है तो संबंधित अधिकारी पर सीधी कार्रवाई हो।
3. राजनीतिक संरक्षण खत्म हो – वोट बैंक के लिए अपराधियों को बचाने वाले नेताओं पर सख्त दंड हो।
4. न्यायपालिका की सक्रियता – अदालतें स्वतः संज्ञान लें और ऐसे मामलों में त्वरित सुनवाई करें।
5. जनता की सजगता – स्थानीय स्तर पर समाज को संगठित होकर प्रतिरोध करना होगा।
निष्कर्ष: असली सवाल:-
भारत की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि यहाँ सरकार और प्रशासन निवारक नहीं, बल्कि प्रतिक्रियात्मक तरीके से काम करते हैं।
पहले अवैध निर्माण होने देते हैं।
फिर अपराधियों को फलने-फूलने देते हैं।
जब दंगा या उपद्रव हो जाता है, तब बुलडोज़र चला देते हैं।
लेकिन तब तक जनता पिस चुकी होती है।
👉 असली सवाल यह है कि क्या जनता हर बार खून, आग और उपद्रव का इंतज़ार करती रहेगी ताकि सरकार जागे?
अगर नहीं, तो अब यह प्रवृत्ति तोड़नी होगी।
🔴 अंतिम संदेश:
बरेली का मामला सिर्फ़ एक शहर की कहानी नहीं है। यह पूरे भारत का आईना है। जब तक प्रशासन भ्रष्टाचार और वोट बैंक की राजनीति का गुलाम रहेगा, जब तक सरकारें केवल उपद्रव के बाद जागेंगी, तब तक हर शहर में नए मौलाना तौकीर पैदा होते रहेंगे।
जनता को अब यह मांग करनी होगी कि:
कानून पहले जागे, बाद में नहीं।
बुलडोज़र दिखावे के लिए नहीं, बल्कि रोकथाम के लिए चले।
राजनीति अपराधियों की ढाल न बने।
वरना, हर उपद्रव के बाद यही सवाल गूंजेगा
“सरकार पहले क्यों नहीं जागी?”


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