
“आरक्षण के नाम पर राष्ट्र का विभाजन — वोट बैंक की राजनीति ने तोड़ा संविधान का संतुलन”
देश आज़ाद तो 1947 में हुआ था, लेकिन न्याय और समानता अब भी गुलाम हैं — जातिगत आरक्षण के नाम पर!संविधान ने कहा था — आरक्षण केवल 10 साल के लिए होगा,
पर आज़ादी के 75 साल बाद, आरक्षण न केवल जारी है बल्कि
अब इसकी सीमा 50% से बढ़ाकर 75% और कुछ राज्यों में 85% तक कर दी गई है! कभी समाज के उत्थान के लिए दिया गया ये आरक्षण,अब योग्यता के गले में लटका ताला बन चुका है! 98% अंक लाने वाला बेरोज़गार घूम रहा है,और -8% वाला सरकारी कुर्सी पर विराजमान है।देश की “टैलेंट बैंक” खाली हो रही है,और “वोट बैंक” भरी जा रही है।देखिए सरकारी स्कूल — बच्चों से ज़्यादा वहाँ कुत्ते घूम रहे हैं,
सरकारी अस्पतालों में इलाज से ज़्यादा “आरक्षण” की चर्चा है, और हमारे “नवरत्न संस्थान” बिक चुके हैं या बिकने की कगार पर हैं।क्योंकि जहां कौशल का मोल नहीं, वहां विकास भी “रिज़र्व” होकर रह जाता है।
जहां आरक्षण नहीं — वहां प्रगति है,जहां योग्यता है — वहां सफलता है। लेकिन हमारे नेता?उन्हें तो बस वोट चाहिए, देश नहीं! वोट बैंक की इस अंधी दौड़ में, देश जातियों में बंटता जा रहा है —ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, कुर्मी, जाट, पाटीदार...सबके लिए अलग “फाइल”, अलग “फायदा”!
और विडंबना देखिए जो पार्टी “जय श्रीराम” के नाम पर सत्ता में आई,आज वही “श्रीराम” को जातिवादी प्रतीक बताकर अपनी राजनीति चमका रही है । अरे, श्रीराम ने कब जाति देखी थी?उन्होंने तो शबरी के जूठे बेर खाए,केवत को गले लगाया, विभीषण और सुग्रीव को मित्र बनाया —क्योंकि उनके लिए “मानवता” ही सर्वोपरि थी। पर आज के नेता? उन्होंने राम के नाम पर रोटी सेंकी, और अब उसी राम के सिद्धांतों को नकार कर देश को जातियों में बाँट रहे हैं।
समय आ गया है सोचने का —क्या यह आरक्षण, जो कभी “समानता” का प्रतीक था, अब “विभाजन” का हथियार बन चुका है? अगर यही चलता रहा,तो आने वाले वक्त में देश का भविष्य भी “रिज़र्व” होकर रह जाएगा।
श्रीराम — जिन्होंने शबरी के जूठे बेर खाए,केवत को गले लगाया,सुग्रीव और विभीषण को मित्र बनाया —वही श्रीराम अब जातिवाद की राजनीति में खींचे जा रहे हैं!
“आरक्षण से नहीं — अवसर से बनेगा भारत महान।”
महेश प्रसाद मिश्रा भोपाल.....