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न्यायपालिका और पुलिस व्यवस्था जब खुद असुरक्षित महसूस करें — तब समाज के लिए एक चेतावनी वाजिब है - चिंता का विषय है l

हाल ही में घटित दो घटनाओं ने हमारे देश के नैतिक विवेक को झकझोर दिया है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गवई पर जूता फेंके जाने की चौंकाने वाली घटना और हरियाणा में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की कथित मानसिक दबाव में आत्महत्या — ये दोनों घटनाएँ अलग-अलग नहीं हैं।
ये हमें एक गंभीर सच्चाई दिखाती हैं — हमारे संस्थानों के स्तंभ भी अब खुद को असुरक्षित, असहाय और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर रहे हैं।

1. न्याय पर हमला, केवल व्यक्ति पर नहीं संविधान पर हमला-
मुख्य न्यायाधीश पर हुआ हमला किसी व्यक्ति पर नहीं, बल्कि हमारे संविधान और न्याय के प्रतीक पर हमला है।
जब असहमति संवाद के बजाय आक्रोश का रूप ले लेती है, तो यह संस्थाओं के प्रति सम्मान में गिरावट का संकेत है।
अगर कानून के रक्षक ही इस तरह के हमलों का सामना कर रहे हैं, तो आम नागरिक की सुरक्षा और सम्मान की क्या गारंटी बचती है? क्या ये एक गहन चिंता का विषय नहीं है I

2. वर्दी के पीछे छिपा मानसिक बोझ -
आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की आत्महत्या उस सच्चाई को उजागर करती है जो अक्सर छिपी रह जाती है —
पदक, सितारों और वर्दी के पीछे गहरे मानसिक थकान और अकेलेपन की कहानी होती है।
दशकों की ईमानदार सेवा और उत्कृष्टता भी उन्हें मनोवैज्ञानिक दबाव से नहीं बचा सकी।
यह हमारे संस्थागत तंत्र में सहानुभूति और मानसिक देखभाल की भारी कमी को दर्शाता है। क्या एक प्रदेश के मुखिया की जिम्मेदारी नहीं इन घटनाओं को बारीकी से देख कर इन पर स्वयं संज्ञान ले एवं कुछ ऐसा करें कि पुलिस व्यवस्था पर सवाल ना खड़े हों बल्कि विश्वास की दृष्टि से देखी जाए l दूसरों की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाने वाले जब खुद को कटघरे में खड़ा पाते हैँ तब ये विश्वास सवाल खड़े करते हैँ l

3. जब शीर्ष पर बैठे लोग टूटने लगें, तो आमजन का क्या होगा?
ये दोनों ही व्यक्ति अनुसूचित जाति समुदाय से थे — जिन्होंने अपनी प्रतिभा, संघर्ष और मेहनत के बल पर ऊँचा मुकाम पाया।
अगर ऐसे सफल लोग भी अपमान, दबाव और अकेलेपन का शिकार हो सकते हैं, तो कल्पना कीजिए उन साधारण लोगों की स्थिति क्या होगी जो आज भी सामाजिक पूर्वाग्रहों और असमानता से जूझ रहे हैं।

4. मानसिक स्वास्थ्य अब इंतज़ार नहीं बल्कि ईलाज जरुरी है -
हमारा समाज अक्सर मानसिक स्वास्थ्य को कमजोरी मानता है।
परंतु पद, शक्ति और सम्मान इंसान के भीतर की पीड़ा को मिटा नहीं सकते।
हमारे संस्थान संरचनात्मक रूप से मजबूत हो सकते हैं, लेकिन भावनात्मक रूप से कमजोर हैं।
अब समय है कि मानसिक स्वास्थ्य को शासन का एक अनिवार्य स्तंभ बनाया जाए — न कि केवल औपचारिकता।
इस विषय पर विशेष एवं खास कदम उठाने की जरुरत है l

5. जातिगत पूर्वाग्रह की लम्बी छाया -
सदियों से लम्बी गुलामी सहने के बाद भी जाति-आधारित भेदभाव आज हमारे पेशेवर और संस्थागत ढाँचों में चुपचाप मौजूद है —
हमेशा शब्दों में नहीं, बल्कि व्यवहार और निर्णयों में इसे देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है l
जब किसी हाशिए पर खड़े व्यक्ति को बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि वह “अपवाद” है,
तो उसके मन पर पड़े घाव बहुत गहरे हो जाते हैं।

6. पूरे समाज के लिए चेतावनी -
इन घटनाओं को अलग-अलग मानकर नज़रअंदाज़ करना खतरनाक होगा। ये संकेत हैं कि हमारा तंत्र अपनी भावनात्मक दिशा खो रहा है।
जो संस्थान सुरक्षा देने के लिए बने हैं, वे अब खुद असुरक्षित महसूस करने लगे हैं।

7. आगे का रास्ता -
विश्वास बहाल करने के लिए समाज और संस्थाओं को निर्णायक कदम उठाने होंगे विश्वास के साथ इन सामाजिक बुराइयों को ख़त्म करना होगा l

मानसिक स्वास्थ्य को संस्थागत करें — सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वे इस जातिगत कलंक को मिटाएँ और वास्तविक सहायता व्यवस्था बनाएं ताकि जिस समाज के बड़े अधिकारियों कि ये दुर्दशा है वो समाज विश्वास के साथ जीवन यापन कर सके l

भेदभाव पर शून्य सहनशीलता की नीति लागू की जाए — जाति, लिंग या किसी भी आधार पर भेदभाव अब बर्दाश्त न हो। फ़ौरन क्रिया पर प्रतिक्रिया हो और दंडनीय अपराध के तहत मामला दर्ज हो l

संवाद को हिंसा से ऊपर रखें — असहमति सभ्यता के साथ होनी चाहिए ना कि जाति, लिंग धर्म के आधार पर भेदभाव के साथ l

सम्मान के साथ समानता — प्रतिनिधित्व तभी सार्थक है जब उसमें गरिमा भी हो। आत्मसम्मान खो चूका आदमी हमेशा अपने आपको कमजोर समझता है और देश निर्माण में वो उतनी भागीदारी नहीं दे सकता जितना आत्मसम्मान से भरपूर होने पर दे सकता है l

निष्कर्ष
जब देश का मुख्य न्यायाधीश अपमान का शिकार होता है और एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी आत्महत्या करने को मजबूर होता है,
तो यह केवल दो दुखद घटनाएँ नहीं हैं — यह उस व्यवस्था का प्रतिबिंब है जहाँ ताकत ने संवेदनशीलता को पीछे छोड़ दिया है।
अगर शीर्ष पर बैठे लोग टूट रहे हैं, तो नीचे बैठे लोगों के मौन संघर्षों की कल्पना कीजिए।
ये घटनाएँ चेतावनी हैं, न कि मात्र समाचार।
अब कार्रवाई का समय है — इससे पहले कि देर हो जाए। एक न्यायोचित कदम उठाने की जरुरत है l ताकि जाति विशेष, लिंग के आधार पर और धर्म के आधार पर कोई भी इंसान अपने आपको कमजोर ना समझे l अगर देश को अखंड भारत के रुप में स्थापित करना है तो जाति, लिंग एवं धर्म के आधार पर देश को खंडित होने से बचाएं l

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