शीर्षक : "एक ओंकार: गुरु नानक की अमर वाणी"
✍️ लेखक : जयदेव राठी
भारत की भूमि वह पवित्र धरती है जहाँ संतों, कवियों और महापुरुषों की वाणी ने समय-समय पर समाज को दिशा दी है। इन्हीं में एक उज्ज्वल दीपक हैं श्री गुरु नानक देव जी—जिन्होंने मानवता के अंधेरे युग में सत्य, करुणा और समानता की रौशनी फैलाई। वे केवल एक धार्मिक गुरु नहीं, बल्कि आत्मा के जागरण के प्रवक्ता थे। जब समाज जात-पात, अंधविश्वास और पाखंड के जाल में उलझा हुआ था, तब नानक ने मनुष्य को उसकी असली पहचान याद दिलाई—ना को हिंदू, ना मुसलमान, सब एक ही प्रभु की संतान।
जब इतिहास के पन्नों में अंधकार सघन होता है, जब समाज की नींव हिलने लगती है और मनुष्यता की परिभाषा धुंधली पड़ जाती है, तब कोई एक आत्मा धरती पर अवतरित होती है—न राजा बनने, न साम्राज्य स्थापित करने, बल्कि हृदयों में प्रेम का साम्राज्य बसाने। गुरु नानक देव जी ऐसे ही युगप्रवर्तक थे, जिन्होंने पंद्रहवीं शताब्दी के घोर अंधकार में मानवता की एक नई परिभाषा गढ़ी।
सन् 1469 में तलवंडी (वर्तमान ननकाना साहिब, पाकिस्तान) की धरती पर जन्मे नानक का बचपन प्रश्नों से भरा था। जब सात वर्ष की अवस्था में पंडित उन्हें जनेऊ पहनाने आए, तो उन्होंने पूछा—"यह सूती धागा तो टूट जाएगा, क्या कोई ऐसा जनेऊ है जो कभी न टूटे, जो आत्मा और परमात्मा को बाँध दे?" पंडित निरुत्तर रह गए। यह प्रश्न केवल बाल-जिज्ञासा नहीं था; यह उस गहन आध्यात्मिक खोज का बीजारोपण था जो आगे चलकर करोड़ों लोगों के जीवन को आलोकित करने वाला था।
नानक ने अपने जीवन में चार यात्राएँ कीं। पूरब में असम और बंगाल से लेकर पश्चिम में मक्का-मदीना तक, उत्तर में तिब्त की बर्फीली चोटियों से लेकर दक्षिण में श्रीलंका के समुद्र तट तक—उन्होंने पैदल यात्रा की। लेकिन यह केवल भौगोलिक यात्राएँ नहीं थीं। हर कदम पर वे मनुष्य की चेतना को जगाते, हर पड़ाव पर वे सत्य का बीज बोते। उनके साथी मरदाना रबाब बजाते और नानक की मधुर वाणी गूँजती—"इक ओंकार सतनाम, करता पुरखु निरभउ निरवैरु।" एक ही ईश्वर है, सत्य उसका नाम है, वह सृजनकर्ता है, भयरहित है, वैरहीन है।
गुरु नानक का दर्शन तीन सूत्रों में समाहित है—नाम जपना, किरत करनी, वंड छकना। अर्थात् ईश्वर का नाम स्मरण करो, ईमानदारी से परिश्रम करो, और जो कमाया है उसे बाँटकर खाओ। यह कितना सरल, फिर भी कितना गहरा सूत्र है! उन्होंने कहा—"गल्ला गोड़ीए, खुसी खुआरि"—अन्न को पैरों तले मत रौंदो, भूखों को भोजन दो। उनका लंगर इसी भावना का साकार रूप था। वहाँ राजा-रंक, ब्राह्मण-शूद्र, हिंदू-मुसलमान सभी एक पंक्ति में बैठते। यह केवल सामूहिक भोजन नहीं था; यह सामाजिक समानता की क्रांति थी।
उस युग में जब स्त्रियों को समाज में दोयम दर्जा प्राप्त था, गुरु नानक ने गरजकर कहा—"सो क्यों मंदा आखीए, जित जम्मे राजान। सभना जीआ का इक दाता, सो मैं विसर न जाई।" अर्थात् उस स्त्री को बुरा क्यों कहें जिससे राजाओं का जन्म होता है? सभी जीवों का एक ही दाता है, वह मुझसे भूला नहीं जाता। पंद्रहवीं शताब्दी में यह कथन न केवल साहसिक था, बल्कि नारी सशक्तिकरण का सबसे प्रारंभिक घोषणापत्र था।
जातिवाद के घोर अंधकार में गुरु नानक ने प्रकाश की किरण फैलाई। उन्होंने कहा—"नीचा अंदर नीच जाति, नीची हूँ अत नीच। नानक तिन के संग साथ, वडियन सिउ किआ रीस।" मैं नीची से नीची जाति के साथ खड़ा हूँ, बड़ों से क्या प्रतिस्पर्धा? यह विनम्रता नहीं, बल्कि समाज की कुरीतियों के विरुद्ध एक तीव्र विद्रोह था। उन्होंने मुरार और लालो की कहानी में यह सिद्ध किया कि निर्धन मजदूर की ईमानदारी से कमाई रोटी, धनवान की शोषण से कमाई रोटी से श्रेष्ठ है।
प्रकृति के प्रति उनका दृष्टिकोण आधुनिक पर्यावरणवाद से सदियों पहले व्यक्त हुआ—"पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत।" वायु गुरु है, जल पिता है, पृथ्वी महान माता है। यह कोरा काव्य नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का गहन दर्शन था।
आज जब धर्म के नाम पर घृणा फैलाई जा रही है, जब जाति और वर्ग की दीवारें और ऊँची हो रही हैं, जब प्रकृति का शोषण चरम पर है—तब गुरु नानक का संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। उनकी शिक्षा कहती है कि धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए है, तोड़ने के लिए नहीं। मंदिर-मस्जिद दीवारों में ईश्वर नहीं, बल्कि मानव हृदय में वास करता है।
गुरु नानक केवल एक धार्मिक गुरु नहीं थे। वे समाज सुधारक थे, क्रांतिकारी थे, कवि थे, दार्शनिक थे, और सबसे बढ़कर—एक सच्चे मनुष्य थे। उन्होंने कोई नया धर्म नहीं बनाया, बल्कि मानवता के शाश्वत धर्म को पुनर्स्थापित किया। उनका मंदिर हर वह हृदय है जो प्रेम में धड़कता है, हर वह हाथ है जो सेवा करता है, हर वह आवाज है जो अन्याय के विरुद्ध उठती है।
जब हम आज गुरु नानक को याद करते हैं, तो यह केवल स्मरण नहीं, बल्कि संकल्प है। संकल्प कि हम उस अमर ज्योति को अपने भीतर जलाए रखेंगे, कि हम मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम का सेतु बनाएँगे, कि हम उनके बताए मार्ग पर चलते रहेंगे। क्योंकि जैसा उन्होंने कहा था—"सच्चा सौदा कर ले ओ बंदे, गल्ले से पैसा उधार।" सच्चा सौदा कर—जीवन का, मानवता का, प्रेम का। यही गुरु नानक की सबसे बड़ी शिक्षा है, यही उनकी अमर विरासत है।
गुरु नानक देव जी की ज्योति बुझी नहीं है। वह हर उस हृदय में जल रही है जो दूसरों के लिए उजाला बनना चाहता है। उन्होंने सिखाया कि सच्चा धर्म वही है जो दूसरों के आँसू पोंछे, और सच्चा ईश्वर वही है जो हर जीव के भीतर बसता है। नानक का यह संदेश समय के पार है—वह हमें जोड़ता है, बाँटता नहीं। और शायद यही कारण है कि सदियों बाद भी उनकी वाणी उतनी ही जीवंत लगती है, जितनी उस दिन जब उन्होंने पहली बार कहा था—“एक ओंकार सतनाम।”
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