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सिलीगुड़ी का हांगकांग मार्केट — एक चॉक, एक धुप्पी और सुशील मुरारका जी द्वारा लिखा गया इतिहास

सिलीगुड़ी का हांगकांग मार्केट — एक चॉक, एक धुप्पी और सुशील मुरारका जी द्वारा लिखा गया इतिहास

सिलीगुड़ी में जब आज कोई “हांगकांग मार्केट” का नाम लेता है, तो उसके मन में एक चहल-पहल, चमकदार गलियाँ, फैशनेबल दुकानें और भीड़ से गूँजता हुआ पूरा इलाक़ा सामने आ जाता है।
लेकिन इस बहुचर्चित बाज़ार के नामकरण के पीछे कैसी कहानी है — यह बहुत कम लोगों को पता है।

यह कहानी सरकारी नामकरण, फाइलों या कमेटियों से नहीं बनी।
यह बनी एक साधारण मज़ाक, एक चॉक की लिखावट और एक युवा की सहज रचनात्मकता से।
और वही युवा आज सिलीगुड़ी के इतिहास के सबसे अनोखे तथा दुर्लभ नामकरणकर्ताओं में से एक माने जाते हैं — सुशील मुरारका।

*जब बिधान मार्केट बस उभर रहा था…*

आज भले ही बिधान मार्केट सिलीगुड़ी का बड़ा और स्थापित व्यावसायिक केंद्र है, पर लगभग पाँच दशक पहले यह एक साधारण, उभरता हुआ बाज़ार था।
इसी बिधान मार्केट से सटा हुआ एक हिस्सा था जहाँ एक टेलर मास्टर की छोटी-सी दुकान थी।
यह टेलर मास्टर बेहद सरल, शांत और अपने काम में पूरी तरह डूबा रहने वाला व्यक्ति था — दुकानदारों की गहमागहमी या राहगीरों की बातें उसे ज़रा भी प्रभावित नहीं करती थीं।

और फिर उसी साधारण जगह पर घटने वाली एक छोटी-सी घटना ने आने वाले वर्षों में पूरे सिलीगुड़ी की पहचान बदल दी।

*वह ऐतिहासिक क्षण — जहाँ नाम पैदा हुआ*

एक दिन, सुशील मुरारका जी मज़ाक-मज़ाक में उस टेलर दुकान के ऊपर लगी लकड़ी की धुप्पी पर सफ़ेद चॉक से बस एक शब्द लिख देते हैं—

*“हांग”*

उस समय किसी ने ध्यान भी नहीं दिया।
यह एक सामान्य, हल्का-फुल्का मज़ाक भर था।

कुछ दिन बाद सुशील जी वहाँ फिर आते हैं।
लिखावट अब भी वहीं है।
और इस बार, बिना किसी योजना, बिना किसी उद्देश्य, बस सहजता से वे उस पर एक और शब्द जोड़ देते हैं

*“कांग”*

अब पूरी पट्टी पर लिखा था —

*“हांगकांग”*

फिर लिखा मार्केट

उधर टेलर मास्टर अपने काम में लगा रहा।
उसे फर्क भी नहीं पड़ा कि उसके सिर के ऊपर अब किसी ने विदेशी शहर का नाम लिख छोड़ा है।

लेकिन राहगीरों को यह शब्द चुभ गया…
दुकानदारों ने इसे मज़े में पढ़ना शुरू किया…
और देखते ही देखते, वही एक साधारण मज़ाक लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया।

*लोगों ने इसे अपनाया — क्योंकि यह “फील” देता था*

उस दौर में सिलीगुड़ी में विदेशी, इलेक्टॉनिक और फैन्सी सामानों की दुकानों का चलन बढ़ रहा था।
हांगकांग उस समय “ट्रेंडी सामानों का केंद्र” माना जाता था।

इसलिए यह नाम लोगों की कल्पना और बाज़ार की प्रकृति — दोनों से मेल खाता था।

लोग कहते:

“चलो हांगकांग मार्केट चलते हैं।”
“हांगकांग में सस्ता और फैन्सी मिलता है।”

और धीरे-धीरे यह नाम मज़ाक नहीं, पहचान बन गया।

*सरकार ने नहीं, जनता ने इस बाज़ार का नाम तय किया*

अपने आप में यह बहुत दुर्लभ है कि:
• कोई बाज़ार का नाम
• न किसी कमेटी द्वारा
• न नगर निगम द्वारा
• न किसी बड़े व्यापारी द्वारा

बल्कि आम लोगों द्वारा चुना जाए।

यह नाम न किसी योजना के तहत था, न किसी व्यवसायी द्वारा प्रचारित।
यह नाम लोगों की ज़बान पर चलकर, स्वाभाविक रूप से पूरे शहर की पहचान बन गया।

और इसके केंद्र में थे — सुशील मुरारका, जिन्होंने उस दिन चॉक से जो लिखा, वह आज एक सांस्कृतिक इतिहास का हिस्सा है।

*हांगकांग मार्केट — आधी सदी से भी अधिक की यात्रा*

आज यह मार्केट
• सिलीगुड़ी का सबसे भीड़भाड़ वाला बाज़ार है,
• नॉर्थ बंगाल के पर्यटन मानचित्र का स्थायी हिस्सा है,
• और युवाओं, परिवारों, खरीदारों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

पर इसकी नींव में छिपा हुआ वह पल आज भी उतना ही जीवंत है —
एक चॉक की सफ़ेद लकीर,
एक खिलंदड़ी मुस्कान,
और एक ऐसा नाम… जिसने पूरे शहर को पहचान दे दी।

*इतिहास का गर्व — सुशील मुरारका जी की भूमिका*

यह कहानी सिलीगुड़ी के इतिहास में इसलिए भी अनोखी है क्योंकि:
• नामकरण किसी संस्था द्वारा नहीं, बल्कि एक व्यक्ति की सहज रचनात्मकता से हुआ।
• यह घटना मौखिक इतिहास का हिस्सा थी, जिसे अब सुशील जी ने स्वयं साझा कर प्रमाणिक बनाया।
• इस नाम ने सिलीगुड़ी को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी।

कभी-कभी इतिहास किताबों से नहीं बनता…
कभी-कभी इतिहास एक चॉक की लकीर से भी लिखा जाता है।

*और उस लकीर का नाम है — सुशील मुरारका*


*— मनोज शर्मा गौड़, सिलीगुड़ी*
(प्रत्यक्ष स्रोत से प्राप्त जानकारी का संकलनकर्ता)

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