
हमारी नींद से कहीं गहरी उनकी नींद की कहानी है,
शहर की चकाचौंध रोशनी के नीचे छाया हुआ अँधेरा है
हमारे चमकते–दमकते महानगरों की चकाचौंध के बीच एक कड़वी सच्चाई रोज़ हमारे कदमों के नीचे दबती है— ठण्डी के मौसम मे चादर पन्नी ताने असुरक्षित रूप से फुटपाथ पर सोते है हजारों लोग। ऊँची–ऊँची इमारतों, चौड़ी सड़कों और शहर की तेज़ रफ्तार के बीच यह दृश्य सिर्फ गरीबी की तस्वीर नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक असमानता और संवेदनहीनता का आईना भी है।
रात की नीरवता में जब शहर रोशनी ओढ़कर सो जाता है, तब कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें नींद नहीं, सिर्फ फुटपाथ मिलते हैं—पत्थरों की ठंडक, वाहनों का शोर, और दुनिया की बेरुख़ी। उनकी थकान इतनी गहरी होती है कि वे जोखिम और असुरक्षा के बीच भी आँखें मूँद लेते हैं, क्योंकि उनके पास विकल्प ही क्या है?
रात के गहरे सन्नाटे में जब शहर अपनी थकान उतारकर नरम बिस्तरों में सिमट जाता है,
उसी वक्त कुछ लोग फुटपाथ पर अपना जिस्म बिछाकर सो जाते है
जैसे ज़िंदगी ने उन्हें अलग पृष्ठ पर लिख दिया हो,
जहाँ आराम की कोई पंक्ति नहीं, बस संघर्ष की कहानी है।
फुटपाथ पर लेटे हुए ये लोग कोई अनजान भीड़ नहीं—यह वही हाथ हैं जिनसे हमारे घर बनते हैं, सड़कें तैयार होती हैं, और शहर की धड़कन चलती है। लेकिन विडंबना देखिए, इन हाथों के मालिकों के पास रात में सिर रखने को ज़मीन का एक इंच सुरक्षित टुकड़ा नहीं होता। उनके बच्चे सड़क के किनारे सोते हैं, धूल में खेलते हैं, भूख में रोते हैं। सोचिए—क्या किसी भी समाज की उन्नति का मूल्य इतना क्रूर होना चाहिए?
रात में जब कोई तेज़ रफ्तार गाड़ी फुटपाथ के करीब से गुजरती है, तो उनके दिल ही नहीं, हमारी इंसानियत भी काँपनी चाहिए। ये लोग किसी अपराध की वजह से फुटपाथ पर नहीं हैं—वे हमारी नीतियों के शिकार हैं, हमारी अनदेखी के, और कभी-कभी हमारी उदासीनता के भी।
सरकार योजनाएँ बनाती है, पर उन तक पहुंचता बहुत कम है। नाइट शेल्टरों की कमी, रोजगार की अनिश्चितता, और जीवन की मजबूरियाँ इन्हें फिर उसी पत्थर की गोद में धकेल देती हैं।
कभी एक पल रुककर देखिए—फुटपाथ पर सोता हर इंसान एक कहानी है। कुछ ने गाँव छोड़े, कुछ ने परिवार; कुछ के सपने टूटे, कुछ की हिम्मत नहीं। लेकिन एक बात सबमें समान है—वे भी उसी आसमान के नीचे हैं, उसी उम्मीद के साथ कि कल शायद बेहतर होगा।।
क्या हम उन्हें सिर्फ देख कर आगे बढ़ जाने के लिए बने हैं?
अगर नहीं, तो शहरों को इतना बड़ा बनाना होगा कि उनमें किसी के सपने फुटपाथ पर दम न तोड़ेंफुटपाथ पर सोता हर व्यक्ति सिर्फ "गरीब" नहीं—वह किसी का पिता है, किसी की माँ है, किसी का बच्चा है, किसी का जीवन–संग्राम। हमें शहरों को सिर्फ ऊँचा नहीं, इंसानियत से भरपूर भी बनाना होगा। जब तक हर नागरिक को एक सुरक्षित रात नसीब नहीं होगी, तब तक हमारी प्रगति अधूरी है।।
आखिरकार, शहर की असली पहचान उसकी इमारतें नहीं, बल्कि उसके लोगों का जीवन होता है—और फुटपाथ पर सोता हर इंसान हमें बताता है कि हम अभी बहुत पीछे है!!
सुहैल अहमद वारसी
सदस्य
आल इंडिया मीडिया एसोसिएशन
जिला संवाददाता
नेक्स्ट मीडिया
हरदोई (उ०प्र०)