
“क्या भारत में सवर्ण होना आज आतंकवादी होने से भी बड़ा अपराध बन चुका है?” SC/ST एक्ट की अंधी तलवार—न्याय नहीं, वोटबैंक का खेल?
✍️ डॉ. महेश प्रसाद मिश्रा, भोपाल की कलम से
देश में एक खतरनाक और भयावह सच्चाई जन्म ले चुकी है—आज भारत में सवर्ण होना आतंकवादी होने से भी बड़ा अपराध साबित हो रहा है।यह सुनकर किसी को झटका लग सकता है, लेकिन देश की हालिया स्थितियाँ, कानूनों का असंतुलन और प्रशासन का व्यवहार यही संकेत दे रहे हैं।
मुंबई पर हमला करने वाला आतंकवादी अजमल कसाब, जिसने सैकड़ों निर्दोष भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया था—उसे भी फांसी तक पहुंचने में सालों का समय लग गया,क्योंकि संविधान कहता है कि हर अपराधी को पूरा कानूनी हक मिले, पूरी सुनवाई मिले, अपील का अधिकार मिले।
लेकिन दूसरी तरफ—यदि किसी भी SC/ST समुदाय के व्यक्ति ने किसी सवर्ण पर SC/ST एक्ट के तहत शिकायत कर दी,चाहे वह शिकायत झूठी ही क्यों न हो,तत्काल गिरफ्तारी, बिना जांच, बिना सुनवाई—यही इस देश की आज की वास्तविकता है।
“कानून का संतुलन बिगड़ा… न्याय नहीं, राजनीति जीत रही है।”
वोटबैंक की राजनीति ने इस एक्ट को एक तरह से धंधे, हथियार और दबाव का अस्त्र बना दिया है।झूठे मामलों के अंबार का यह हाल है कि—• कई निर्दोष परिवार उजड़ गए,• कई युवा जेल की सलाखों के पीछे सड़ते रहे,• और अनेक ने अपमान, भय और निराशा में आत्महत्या तक कर ली।
यह कानून अब सुरक्षा कवच नहीं, बल्कि राजनीति की ढाल बन चुका है।और विडंबना यह है कि—यदि कोई SC/ST का व्यक्ति किसी सवर्ण पर कितना भी जघन्य अपराध कर दे,मामलों का रेशो, सजा की दर और कानूनी व्यवहार देखकर साफ है—सवर्ण को न्याय मिलना लगभग असंभव हो चुका है।
“सवर्ण—इस देश में सबसे असुरक्षित, सबसे असहाय वर्ग?”
स्थिति इतनी विकृत हो चुकी है कि—आज सवर्ण समाज के बेटे-बेटियाँ यह सोचने लगे हैं किन्याय मांगना बेकार है, क्योंकि कानून उनके खिलाफ खड़ा है।
यह विषमता सिर्फ समाज को बाँट नहीं रही,बल्कि युवाओं में विद्रोह और अपराध के बीज बो रही है।जब कानून सुरक्षा नहीं देता, तो समाज अराजकता की राह पकड़ता है—और यह आने वाले समय में देश के लिए विनाशकारी संकेत है।
“सरकारें न जागीं, तो सामाजिक विस्फोट निश्चित है”
यदि सरकारों ने समय रहते कानून का पुनर्मूल्यांकन नहीं किया,संतुलन नहीं बनाया, निष्पक्षता को जगह नहीं दी,तो आने वाला समय ऐसा भयानक हो सकता है जिसकी कल्पना भी राष्ट्र ने नहीं की होगी।
कानून का उद्देश्य न्याय होना चाहिए,लेकिन जब कानून ख़ुद भय का पर्याय बन जाए,तो वह राष्ट्र को अंदर से तोड़ने लगता है।