
बिहार की 35 नई चीनी मिलें: सवाल वादों पर नहीं, गणित पर उठते हैं
✍️ हरिदयाल तिवारी
बिहार सरकार द्वारा 35 नई चीनी मिलों की घोषणा जितनी चमकदार लगती है, उतनी ही गंभीर आर्थिक विसंगतियाँ इसमें छिपी हैं। सबसे बड़ी बात — जब मौजूदा मिलों को ही गन्ना नहीं मिलता और 2–3 महीने में मिलें बंद हो जाती हैं, तब 35 नई मिलों के लिए गन्ना आएगा कहाँ से?
गन्ने की खेती पहले क्यों घट गई?
किसान की वास्तविक लागत आज ₹380–450 प्रति क्विंटल है, जबकि औसत भुगतान ₹400 के आसपास। यानी किसान अपनी ही लागत बराबर निकाल पा रहा है, लाभ कहाँ? यही कारण है कि किसान बड़े पैमाने पर गन्ने से धान, मक्का और सब्ज़ी की ओर मुड़ चुके हैं।
तीस वर्षों में बिहार में गन्ने का क्षेत्र 60% से अधिक कम हुआ—यह बात किसी भी नई मिल योजना का पहला सवाल बनती है।
मौजूदा मिलें क्यों नहीं चल पातीं?
बिहार की अधिकांश पुरानी मिलें वर्षों से बंद, बीमार या सीमित अवधि में चालू हैं। कई मिलें हर सीजन सिर्फ 60–90 दिन चलकर बंद हो जाती हैं, क्योंकि गन्ना ही उपलब्ध नहीं होता। किसानों का भुगतान अटकता है, मिल गन्ने की कमी में पेराई रोकती है, और यह चक्र हर साल दोहराया जाता है। यदि पुरानी मिलें ही गन्ने की कमी से दम तोड़ रही हैं, तो नई मिलों की व्यवहारिकता अपने-आप कटघरे में आ जाती है।
अब 100 किलो (1 क्विंटल) गन्ने का वास्तविक आर्थिक गणित
सरकार और उद्योग के औसत रिकवरी आँकड़ों को लें:
चीनी: 10–11 kg
शीरा: 4–5 kg
बगास: 25–30 kg
प्रेसमड: 3–5 kg
इन सबकी औसत बिक्री से मिल की कुल आमदनी:
चीनी से: ₹440
शीरा से: ₹45
बगास से: ₹50
प्रेसमड से: ₹10
कुल आमदनी = ₹545 प्रति क्विंटल
अब लागत देखें:
किसान से खरीद: ₹400
फैक्ट्री संचालन: ₹200
कुल लागत = ₹600 | घाटा = ₹55 प्रति क्विंटल
यानी मिलें भी 100 किलो गन्ने पर औसतन घाटा उठाती हैं।
यह एक सीधा, कठोर और अटल तथ्य है।
तो असली प्रश्न कौन-से हैं?
जब किसान ₹400 में घाटे में है, तो वह गन्ना क्यों बोएगा?
जब 100 किलो गन्ने पर मिल का ही घाटा हो रहा है, तो 35 मिलें वित्तीय रूप से कैसे टिकेंगी?
जब मौजूदा मिलें गन्ने की कमी से 2–3 महीने में बंद हो जाती हैं, नई मिलें गन्ना कहाँ से लाएँगी?
जब 30 वर्षों में गन्ना क्षेत्र आधा होकर गिर चुका है, तो कच्चा माल किस आधार पर उपलब्ध माना जा रहा है?
क्या यह घोषणा जमीन की वास्तविकता पर आधारित है, या केवल कागज़ पर?